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वैराग्य पच्चीसिका ]
लक्ष्मी साथ न अनुसरै, देह चले नहिं संग | काढ़-काढ़ सुजनहिं करें, देख जगत के रंग ॥८ ॥ दुर्लभ दस दृष्टान्त सम, सो नरभव तुम पाय । विषय सुखन के कारने, सरवस चले गमाय ॥९ ॥ जगहिं फिरत कई युग भये, सो कछु कियो विचार । चेतन अब तो चेतहू, नरभव लहि अतिसार ॥१० ॥ ऐसे मति विभ्रम भई, विषयनि लागत धाय । कै दिन कै छिन कै घरी, यह सुख थिर ठहराय ॥११॥ पी तो सुधा स्वभाव की, जी तो कहूँ सुनाय ।
तू तो क्यों जातु है, वीतो नरभव जाय ॥१२॥ मिथ्यादृष्टि निकृष्ट अति, लखै न इष्ट अनिष्ट । भ्रष्ट करत है शिष्ट को, शुद्ध दृष्टि दे पिष्ट ॥१३॥ चेतन कर्म उपाधि तज, राग-द्वेष को संग | ज्यों प्रगटे परमात्मा, शिव सुख होय अभंग ॥१४॥ ब्रह्म कहूँ तो मैं नहीं, क्षत्री हूँ पुनि नाहिं | वैश्य शूद्र दोऊ नहीं, चिदानन्द हूँ माहिं ॥१५ ॥ जो देखै इहि नैन सों, सो सब बिनस्यो जाय । तासों जो अपनौ कहे, सो मूरख शिर राय ॥ १६ ॥ पुद्गल को जो रूप है, उपजे विनसै सोय । जो अविनाशी आतमा, सो कछु और न होय ॥१७॥ देख अवस्था गर्भ की, कौन - कौन दुख होहिं । बहुरि मगन संसार में, सो लानत है तोहि ॥ १८ ॥ अधो शीश ऊरध चरन, कौन अशुचि आहार । थोरे दिन की बात यह, भूल जात संसार ॥१९॥ अस्थि चर्म मल मूत्र में, रैन दिना को वास । देखें दृष्टि घिनावनो, तऊ न होय उदास ॥२०॥
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