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[ वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह
भूख तृषा दुख आदि अनेकन, इस ही तन में गाढ़े। मृत्युराज अब आय दया कर, तनपिंजर सों काढ़े ॥ १२ ॥ नाना वस्त्राभूषण मैंने, इस तन को पहराये । गन्ध-सुगन्धित अतर लगाये, षट्स असन कराये ॥ रात दिना मैं दास होयकर, सेव करी तनकेरी । सो तन मेरे काम न आयो, भूल रह्यो निधि मेरी ॥ १३ ॥ मृत्युराज को शरन पाय, तन नूतन ऐसो पाऊँ । जामें सम्यक्रतन तीन लहि, आठों कर्म खपाऊँ ॥ देखो तन सम और कृतघ्नी, नाहिं सु या जगमाहीं । मृत्यु समय में ये ही परिजन, सब ही हैं दुखदाई ॥१४ ॥ यह सब मोह बढ़ावन हारे, जिय को दुर्गति दाता । इनसे ममत निवारो जियरा, जो चाहो सुख साता ॥ मृत्यु कल्पद्रुम पाय सयाने, माँगो इच्छा जेती । समता धरकर मृत्यु करो तो, पावो सम्पत्ति तेती ॥१५ ॥ चौ-आराधन सहित प्राण, तज तो ये पदवी पावो । हरि प्रतिहरि चक्री तीर्थेश्वर, स्वर्ग मुकति में जावो ॥ मृत्युकल्पद्रुम सम नहिं दाता, तीनों लोक मझारे । ताको पाय कलेश करो मत, जन्म जवाहर हारे ॥ १६ ॥ इस तन में क्या राचै जियरा, दिन-दिन जीरन होहै । तेज कान्ति बल नित्य घटत है, या सम अथिर सु को है ॥ पाँचों इन्द्री शिथिल भई अब, स्वास शुद्ध नहिं आवै । तापर भी ममता नहिं छोड़े, समता उर नहिं लावै ॥१७॥ मृत्युराज उपकारी जिय को, तनसों तोहि छुड़ावै । नार या तन बन्दीगृह में, परयो परयो बिललावै ॥
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