________________
[१९९
समाधिमरण पाठ 1
पुद्गल के परमाणु मिलकैं, पिण्डरूप तन भासी। याही मूरत मैं अमूरती, ज्ञानजोति गुण खासी॥१८॥ रोग शोक आदिक जो वेदन, ते सब पुद्गल लारै। मैं तो चेतन व्याधि बिना नित, हैं सो भाव हमारै । या तनसों इस क्षेत्र सम्बन्धी, कारण आन बन्यो है। खानपान दे याको पोष्यो, अब समभाव ठन्यो है ॥१९॥ मिथ्यादर्शन आत्मज्ञान बिन, यह तन अपनो जान्यो। इन्द्रीभोग गिने सुख मैंने, आपो नाहिं पिछान्यो। तन विनशन” नाश जानि निज, यह अयान दुखदाई। कुटुम अििद को अपनो जान्यो, भूल अनादी छाई ॥२०॥ अब निज भेद जथारथ समझ्यो, मैं हूँ ज्योतिस्वरूपी। उपजै विनसै सो यह पुद्गल, जान्यो याको रूपी॥ इष्टऽनिष्ट जेते सुख दुख हैं, सो सब पुद्गल सागैं। मैं जब अपनो रूप विचारों, तब वे सब दुख भागें ॥२१॥ बिन समता तनऽनंत धरे मैं, तिनमें ये दुख पायो। शस्त्र घात ऽनन्त बार मर, नाना योनि भ्रमायो॥ बार अनन्तहि अग्नि माहिं जर, मूवो सुमति न लायो। सिंह व्याघ्र अहिऽनन्तबार मुझ, नाना दुःख दिखायो॥२२॥ बिन समाधि ये दुःख लहे मैं, अब उर समता आई। मृत्युराज को भय नहिं मानो, देवै तन सुखदाई। या जब लग मृत्यु न आवै, तब लग जप-तप कीजै। जप-तप बिन इस जग के माहीं, कोई भी ना सीजै ॥२३॥ स्वर्ग सम्पदा तपसों पावै, तपसों कर्म नसावै। तप ही सों शिवकामिनि पति है, यासों तप चित लावै॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org