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समाधिमरण पाठ J
उपजे विनसे जो यह परिणति, स्वांग समान दिखावे । हुआ सहज माध्यस्थ भाव, नहीं हर्ष विषाद उपजावे ॥६॥ स्वयं स्वयं में तृप्त सदा ही, चित्स्वरूप विलसाऊँ । हानि वृद्धि नहीं होय कदाचित्, ज्ञायक सहज रहाऊँ ॥७ ॥ पूर्ण स्वयं मैं स्वयं प्रभु हूँ, पर की नहीं अपेक्षा । शक्ति अनन्त सदैव उछलती, परिणमती निरपेक्षा ॥८ ॥ अक्षय स्वयं- सिद्ध परमातम, मंगलमय अविकारी । स्वानुभूति विलसे अन्तर में, भागे भाव विकारी ॥९ ॥ निरुपम ज्ञानानन्दमय जीवन, स्वाश्रय से प्रगटाया। इन्द्रिय विषय असार दिखे, आनन्द स्वयं मैं पाया ॥१०॥ नहीं प्रयोजन रहा शेष कुछ, देह रहे या जावे। भिन्न सर्वथा दिखे अभी ही, नहीं अपनत्व दिखावे ॥११॥ द्रव्य प्राण तो पुद्गलमय हैं, मुझसे अति ही न्यारे । शाश्वत चैतन्यमय अन्तर में, भाव-प्राण सुखकारे ॥ १२ ॥ उनही से ध्रुव जीवन मेरा, नाश कभी नहीं होवे । अहो महोत्सव के अवसर में, कौन मूढ़जन रोवे ? ॥१३ ॥ खेद न किञ्चित् मन में मेरे, निर्ममता हितकारी । ज्ञाता - दृष्टा रहूँ सहज ही, भाव हुए अविकारी ॥१४ ॥ आनन्द मेरे उर न समावे, निर्ग्रन्थ रूप सु धारूँ । तोरि सकल जगद्वन्द्व, निज ज्ञायक भाव सँभारूँ ॥१५ ॥ धन्य सुकौशल आदि मुनीश्वर हैं आदर्श हमारे । हो उपसर्गजयी समता से, कर्मशत्रु निरवारे ॥ १६ ॥ ज्ञानशरीरी अशरीरी प्रभु शाश्वत शिव में राजें । भाव सहित तिनके सुमरण तैं, भव-भव के अघ भाजें ॥ १७ ॥ उन समान ही निजपद ध्याऊँ, जाननहार रहाऊँ । काल अनन्त रहूँ आनन्द में, निज में ही रम जाऊँ ॥ १८ ॥
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