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[वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह चार अघाती कर्म जहाँ पर, जली जेबरी भाँति रहें। आयु पूर्ण हो मुक्त दशा फिर, देह मात्र भी नहीं रहे ॥१६॥ मन वच काया कर्म वर्गणा, के छूटे सब ही सम्बन्ध । सूक्ष्म अयोगी गुणस्थान हो, सुखदायक अरु पूर्ण अबन्ध ॥१७॥ परमाणु मात्र स्पर्श नहीं हो, निष्कलंक अरु अचल स्वरूप। चैतन्य मूर्ति शुद्ध निरंजन, अगुरुलघु बस निजपद रूप ॥१८॥ पूर्व प्रयोगादिक कारण वश, ऊर्ध्व गमन सिद्धालय तिष्ठ। सादि अनन्त समाधि सुख में, दर्शन ज्ञान चरित्र अनन्त ॥१९॥ जो पद श्री सर्वज्ञ ज्ञान में, कह न सके पर श्री भगवान। वह स्वरूप फिर अन्य कहे को, अनुभव गोचर है वह ज्ञान॥२०॥ मात्र मनोरथ रूप ध्यान यह, है सामर्थ्य हीनता आज। 'रायचन्द' तो भी निश्चय मन, शीघ्र लहूँगा निजपद राज ॥२१॥ सहज भावना से प्रेरित हो, हुआ स्वयं ही यह अनुवाद। शब्द अर्थ की चूक कहीं हो, सुधी सुधार हरो अवसाद ॥२२॥
समाधिमरण पाठ सहज समाधि स्वरूप सु ध्याऊँ, ध्रुव ज्ञायक प्रभु अपना। सहज ही भाऊँ सहज ही ध्याऊँ, ध्रुव ज्ञायक प्रभु अपना ॥१॥ आधि व्याधि उपाधि रहित हूँ, नित्य निरंजन ज्ञायक। जन्म मरण से रहित अनादि-निधन ज्ञानमय ज्ञायक ॥२॥ भाव कलंक से भ्रमता भव-भव, क्षण नहीं साता आयी। पहिचाने बिन निज ज्ञायक को, असह्य वेदना पायी ॥३॥ मिला भाग्य से श्री जिनधर्म, सु तत्त्वज्ञान उपजाया। देहादिक से भिन्न ज्ञानमय, ज्ञायक प्रत्यक्ष दिखाया ॥४॥ कर्मादिक सब पुद्गल भासे, मिथ्या मोह नशाया। धन्य-धन्य कृतकृत्य हुआ, प्रभु जाननहार जनाया ॥५॥
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