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अपूर्व अवसर ]
[१९१ प्रगट ज्ञान मिथ्यात्व रहित से, दीखे आत्म काय से भिन्न। चरितमोह भी दूर भगाऊँ, निज स्वभाव का ध्यान अछिन्न ॥३॥ जब तक देह रहे तब तक भी, रहूँ त्रिधा मैं निज में लीन। घोर परीषह उपसर्गों से, ध्यान न होवे मेरा क्षीण ॥४॥ संयम हेतु योग प्रवर्तन, लक्ष्य स्वरूप जिनाज्ञाधीन। क्षण-क्षण चिन्तन घटता जावे, हाऊँ अन्त ज्ञान में लीन ॥५॥ रॉगद्वेष ना हो विषयों में, अप्रमत्त अक्षोभ सदैव। द्रव्य क्षेत्र अरु काल भाव से, विचरण हो निरपेक्षित एव ॥६॥ क्रोध प्रति मैं क्षमा संभारूँ, मान तनँ मार्दव भाऊँ। माया को आर्जव से जीतूं, वृत्ति लोभ नहिं अपनाऊँ ॥७॥ उपसर्गों में क्रोध न तिलभर, चक्री वन्दे मान नहीं। देह जाय किञ्चित् नहिं माया, सिद्धि का लोभ निदान नहीं ॥८॥ नगन वेष अरु केशलोंच, स्नान दन्त धोवन का त्याग। नहीं रुचि शृङ्गार प्रति, निज संयम से होवे अनुराग ॥९॥ शत्रु मित्र देखू न किसी को, मानामान में समता हो। जीवन मरण दोऊ सम देखू, भव-शिव में न विषमता हो॥१०॥ एकाकी जंगल मरघट में, हो अडोल निज ध्यान धरूँ। सिंह व्याघ्र यदि तन को खायें, उनमें मैत्रीभाव धरूँ॥११॥ घोर तपश्चर्या करते, आहार अभाव में खेद नहीं। सरस अन्न में हर्ष न रजकण, स्वर्ग ऋद्धि में भेद नहीं ॥१२॥ चारित मोह पराजित होवे, आवे जहाँ अपूर्वकरण। अनन्य चिन्तन शुद्धभाव का, क्षपक श्रेणि पर आरोहण ॥१३ ।। मोह स्वयंभूरमण पार कर, क्षीणमोह गुणस्थान वरूँ। ध्यान शुक्ल एकत्व धार कर, केवलज्ञान प्रकाश करूँ॥१४॥ भव के बीज घातिया विनशे, होऊँ मैं कृतकृत्य तभी। दर्शज्ञान सुख बल अनन्तमय, विकसित हों निजभाव सभी ॥१५॥
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