________________
१९०]
[ वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह यही भावना प्रभो स्वप्न में भी, विराधना रंच न हो। सत्य, सरल परिणाम रहें नित, मन में कोई प्रपंच न हो। विषय कषायारम्भ रहित, आनंदमय पद निर्ग्रन्थ है॥१०॥ धन्य घड़ी हो जब प्रगटावे, मंगलकारी जिनदीक्षा। प्रचुर स्वसंवेदनमय जीवन, होय सफल तब ही शिक्षा । अविरल निर्मल आत्मध्यान हो, होय भ्रमण का अंत है ॥११॥ अहो जितेन्द्रिय जितमोही ही, सहज परम पद पाता है। समता से सम्पन्न साधु ही, सिद्ध दशा प्रगटाता है। बुद्धि व्यवस्थित हुई सहज ही, यही सहज शिवपंथ है ॥१२॥ आराधन में क्षण-क्षण बीते, हो प्रभावना सुखकारी। इसी मार्ग में सब लग जावें, भाव यही मंगलकारी॥ सदृष्टि-सद्ज्ञान-चरणमय, लोकोत्तम यह पंथ है ॥१३॥ तीन लोक अरु तीन काल में, शरण यही है भविजन को। द्रव्य दृष्टि से निज में पाओ, व्यर्थ न भटकाओ मन को॥ इसी मार्ग में लगें लगावें, वे ही सच्चे संत हैं ॥१४॥ है शाश्वत अकृत्रिम वस्तु, ज्ञानस्वभावी आत्मा। जो आतम आराधन करते, बनें सहज परमात्मा। परभावों से भिन्न निहारो, आप स्वयं भगवंत है ॥१५॥
अपूर्व अवसर आवे कब अपूर्व अवसर जब, बाह्यान्तर होऊँ निर्ग्रन्थ। सब सम्बन्धों के बन्धन तज, विचरूँ महत् पुरुष के पंथ॥१॥ सर्व भाव से उदासीन हो, भोजन भी संयम के हेतु। किंचित् ममता नहीं देह से, कार्य सभी हों मुक्ती सेतु ॥२॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org