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जिनमार्ग ]
[१८९ देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा ही, समकित का सोपान है। महाभाग्य से अवसर आया, करो सही पहिचान है। पर की प्रीति महा दुखदायी, कहा श्री भगवंत है ॥२॥ निर्णय में उपयोग लगाना ही, पहला पुरुषार्थ है। तत्त्वविचार सहित प्राणी ही, समझ सके परमार्थ है। भेदज्ञान कर करो स्वानुभव, विलसे सौख्य बसंत है ॥३॥ ज्ञानाभ्यास करो मनमाहीं, विषय-कषायों को त्यागो। कोटि उपाय बनाय भव्य, संयम में ही नित चित पागो॥ ऐसे ही परमानन्द वेदें, देखो ज्ञानी संत हैं ॥४॥ रत्नत्रयमय अक्षय सम्पत्ति, जिनके प्रगटी सुखकारी। अहो शुभाशुभ कर्मोदय में, परिणति रहती अविकारी। उनकी चरण शरण से ही हो, दुखमय भव का अंत है ।।५।। क्षमाभाव हो दोषों के प्रति, क्षोभ नहीं किंचित् आवे। समता भाव आराधन से निज, चित्त नहीं डिगने पावे॥ उर में सदा विराजें अब तो, मंगलमय भगवंत हैं॥६॥ हो निशंक, निरपेक्ष परिणति, आराधन में लगी रहे। क्लेशित हो नहीं पापोदय में, जिनभक्ति में पगी रहे। पुण्योदय में अटक न जावें, दीखे साध्य महंत है ॥७॥ परलक्षी वृत्ति ही आकर, शिवसाधन में विघ्न करे। हो पुरुषार्थ अलौकिक ऐसा, सावधान हर समय रहे। नहीं दीनता, नहीं निराशा, आतम शक्ति अनंत है।८॥ चाहे जैसा जगत परिणमे, इष्टानिष्ट विकल्प न हो। ऐसा सुन्दर मिला समागम, अब मिथ्या संकल्प न हो। शान्तभाव हो प्रत्यक्ष भासे, मिटे कषाय दुरन्त हैं ॥९॥
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