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________________ १८८] [वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह देखो कर्मोदय की लीला कितनी आपत्ति आयी। महिमा निज स्वभाव की निरखो सती न किंचित् घबरायी॥ कर्म विकार करे नहीं जबरन व्यर्थ रुले अज्ञान से॥१०॥ निकल संकटों से फिर पहुँची पद्मश्री आर्यिका के पास। निज स्वभाव साधन करने का मन में था अपूर्व उल्लास ॥ उधर दुखी प्रियदत्त मोहवश यहीं अयोध्या में आये। बिछुड़ी निज पुत्री को पाकर मन में अति ही हरषाये। घर चलने को कहा तभी दीक्षा ली हर्ष महान से॥११॥ निज स्वरूप विश्रान्तिमयी इच्छा निरोध तप धारा था। रत्नत्रय की पावन गरिमामय निजरूप सम्भाला था। मगन हुयी निज में ही ऐसी मैं स्त्री हूँ भूल गयी। छूटी देह समाधि सहित द्वादशम स्वर्ग में देव हुयी। पढ़ो-सुनो ब्रह्मचर्य धरो सुख पाओ आतमज्ञान से ॥१२॥ परभाव शून्य चिद्भावपूर्ण मैं परम ब्रह्म श्रद्धा जागे। विषय-कषायें दूर रहें मन निजानंद में ही पागे॥ ये ही निश्चय ब्रह्मचर्य आनंदमयी मुक्ति का द्वार। संकट त्राता आनन्द दाता इससे ही होवे उद्धार ॥ अंत: 'आत्मन्' उत्तम अवसर बनो स्वयं भगवान-से। सती शिरोमणि अनन्तमती की गाथा जैन पुराण से ॥१३॥ जिनमार्ग कितना सुन्दर, कितना सुखमय, अहो सहज जिनपंथ है। धन्य धन्य स्वाधीन निराकुल, मार्ग परम निर्ग्रन्थ है।टेक॥ श्री सर्वज्ञ प्रणेता जिसके, धर्म पिता अति उपकारी। तत्त्वों का शुभ मर्म बताती, माँ जिनवाणी हितकारी। अंगुली पकड़ सिखाते चलना, ज्ञानी गुरु निर्ग्रन्थ हैं ॥१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003172
Book TitleBruhad Adhyatmik Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Devlali
PublisherKundkundswami Swadhyaya Mandir Trust Bhind
Publication Year2008
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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