________________
सती अनन्तमती गाथा ]
[१८७ भोगों की अग्नि में अब यह जीवन हवन नहीं होगा। क्षणिक सुखाभासों में शाश्वत सुख का दमन नहीं होगा। निज का सुख तो निज में ही है देखो सम्यक्ज्ञान से॥५॥ अब मैं पीछे नहीं हटूंगी ब्रह्मचर्य व्रत पालूंगी। शील बाढ़ नौ धारण करके अन्तर ब्रह्म निहारूँगी। नहीं बालिका मुझको समझो मैं भी तो प्रभु सम प्रभु हूँ। भय शंका का लेश न मुझमें अनन्त शक्ति धारी विभु हूँ॥ मूढ़ बनो मत, स्व महिमा पहिचानो भेद विज्ञान से॥६॥ मिट्टी का टीला तो देखो जल धारा से बह जाता। धारा ही मुड़ जाती, लेकिन अचल अडिग पर्वत रहता। ध्रुव कीली के पास रहें वे दाने नहिं पिस पाते हैं। छिन्न-भिन्न पिसते हैं वे ही कीली छोड़ जो जाते हैं। निज स्वभाव को नहीं छोड़ना सुनो भ्रात अब कान दे॥७॥ अनन्तमती की दृढ़ता देखी मात-पिता भी शांत हुये। आनन्दित हो धर्मध्यान में वे सब ही लवलीन हुये। झूला झूल रही थी एक दिन कुंडलमंडित आया था। कामासक्त हुआ विद्याधर जबरन उसे उठाया क्ष। पर पत्नी के भय के कारण छोड़ा उसे विमान से॥८॥ एकाकी वन में प्रभु सुमरे भीलों का राजा आया। कामवासना पूरी करने को वह भी था ललचाया। देवों द्वारा हुआ प्रताड़ित सती तेज से काँप गया। पुष्पक व्यापारी को दी उसने वेश्या को बेच दिया। देखो सुर भी होंय सुहाई सम्यक् धर्म ध्यान से ॥९॥ वेश्या ने बहु जाल बिछाया पर वह भी असमर्थ रही। भेंट किया राजा को उसने सती वहाँ भी अडिग रही।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org