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[ वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह
सती अनन्तमती गाथा
ब्रह्मचर्य की अद्भुत महिमा, सुनो भव्यजन ध्यान से। सती शिरोमणि अनन्तमती, की गाथा जैन पुराण से ॥ टेक ॥ बहुत समय पहले चम्पानगरी में, प्रियदत्त सेठ हुये । न्यायवान गुणवान बड़े, धर्मात्मा अति धनवान थे वे ॥ पुत्री एक अनन्तमती, इनकी प्राणों से प्यारी थी । संस्कारों में पली परम विदुषी रुचिवंत दुलारी थी ॥ सदाचरण की दिव्य मूर्ति निज उन्नति करती ज्ञान से ॥१॥ मंगलपर्व अठाई आया, श्री मुनिराज पधारे थे। स्वानुभूति में मग्न रहे, अरु अद्भुत समता धारे थे || धर्मकीर्ति मुनिराज धर्म का, मंगल रूप सुनाया था। श्रद्धा, ज्ञान, विवेक, जगा, वैराग्य रंग बरसाया था ॥ धन्य-धन्य नर नारी कहते, स्तुति करते तान से ॥२॥ प्रियदत्त सेठ ने धर्म पर्व में, ब्रह्मचर्य का नियम लिया । सहज भाव से अनन्तमती ने, ब्रह्मचर्य स्वीकार किया ॥ जब प्रसंग शादी का आया, बोली पितु क्या करते हो ? ब्रह्मचर्य सा नियम छुड़ा, भोगों में प्रेरित करते हो ॥ भोगों में सुख किसने पाया, फंसे व्यर्थ अज्ञान से ॥ ३ ॥ व्रत को लेना और छोड़ना, हंसी खेल का काम नहीं । भोगों के दुख प्रत्यक्ष दीखें, अब तुम लेना नाम नहीं ॥ गज, मछली, अलि, पतंग, हिरण, इक इक विषयों में मरते हैं। फिर भी विस्मय मूढ़, पंचेन्द्रिय भोगों में फंसते हैं ॥ मिर्च भरा ताम्बूल चबाते हँसते झूठी शान से ॥४ ॥ चिंतामणि सम दुर्लभ नरभव नहिं इनमें फंस जाने को । यह भव हमें सु प्रेरित करता निजानंद रस पाने को ॥
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