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सेठ सुदर्शन गाथा ]
[१८५ चम्पापुरी धन्य हुयी थी, अरु वृषभदत्त यश पाया। जिनके सुत सेठ सुदर्शन, यह चमत्कार दिखलाया। पिछले ग्वाले के भव में, श्रद्धा जिनधर्म की धारी। फिर श्रेष्ठी सुत होकर यों, महिमा पाई सुखकारी ॥१५॥ चरणों में नत हो भूपति, पछताते क्षमा कराते । तब सेठ सुदर्शन बोले, हम दीक्षा ले वन जाते । नहीं दोष किसी का कुछ भी, कर्मों की लीला न्यारी। कर्मों का नाश करेंगे, निर्ग्रन्थ दशा धर प्यारी ॥१६॥ उत्तम सुयोग पाकर भी, मैं समय न व्यर्थ गवाऊँ। भोगों के दुख बहु पाये, अब इनमें नाहिं फसाऊँ॥ नश्वर अशरण जगभर में, शुद्धातम ही सुखकारी। निज में ही तृप्ति पाऊँ, संकल्प जगा हितकारी ॥१७॥ मुनि हो तप करते-करते, पटना नगरी में आये। उपसर्ग वहाँ भी भारी, पर किंचित् नहीं चिगाये। फिर शुक्लध्यान के द्वारा कर्मों की धूल उड़ा दी। प्रभु पौष शुक्ल पंचमी को, निर्वाण गये सुखकारी॥१८॥ है निमित्त अकिंचित्कर ही, किंचित् नहिं सुख-दुखदाता। निज की सम्यक् दृढ़ता से मिटती है सर्व असाता॥ प्रभु यही भावना मेरी, तुमसा पुरुषार्थ सु धारी। होकर शिवपदवी पाऊँ, चरणों में ढोक हमारी ॥१९॥ भवि पढ़ें सुनैं यह गाथा, हो तत्त्वज्ञान के धारी। निज सम नारी भगनी सम, लघु सुता, बड़ी महतारी॥ आत्मन् ज्ञानाराधन से, उपजे नहीं भाव विकारी। सारे ही जग में फैले यह, शील धर्म सुखकारी ॥२०॥
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