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_ [वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह मैं तो मूर्खा ही ठहरी, बोली झुंझला बेचारी। वश में करके दिखलाओ, तुम रूप बुद्धिबलधारी ॥८॥ रानी बातों में आयी, बुद्धि विवेक विसरानी। दूती को लालच देकर, तब सेठ मिलन की ठानी। धर्मात्मा सेठ सुदर्शन, धर नग्न दशा अविकारी। मरघट में ध्यान लगाते, चौदश निशि धीरज धारी॥९॥ दूती ने जाल बिछाया नर मूर्ति तुरत बनवायी। कंधे पर रखकर उसको, महलों के द्वारे आयी। ज्यों द्वारपाल ने रोका, दूती ने मूर्ति गिरादी। व्रत टूट गया रानी का, तोहि सजा दिलाऊँ भारी॥१०॥ यों द्वारपाल वश कीने, तब उठा सेठ को लाई। बैठाया जाय पलंग पर, रानी अति ही हरषाई॥ भारी चेष्टायें कीनी, यों रात गुजर गयी सारी। पर ध्यानमग्न थे श्रेष्ठी, उपसर्ग समझ अतिभारी ॥११॥ ध्रुव का अवलम्बन जिनके, विचलित नहीं होते जग में। उपसर्ग परीषह आवे, पर सतत बढ़े शिवमग में। है आत्मज्ञान की महिमा, हो अद्भुत समता धारी। उनकी गरिमा वर्णन में, इन्द्रों की बुद्धि हारी॥१२॥ जब विफल स्वयं को जाना, रानी षडयंत्र रचाया। बिखराकर वस्त्राभूषण, तब उसने शोर मचाया। तत्क्षण सब दौड़े आये, नृप क्रोध किया अतिभारी। कुछ न्याय अन्याय न जाना, शूली की सजा सुना दी॥१३॥ शूली के तख्ते पर थे, बैठे वे धर्म धुरन्धर । किंचित् घबड़ाहट नाहीं, डूबे समता के अन्दर ॥ तब नभ से पुष्प बरसते, सिंहासन रच गया भारी। इन्द्रादिक स्तुति करते, जय-जय बोलें नर नारी ॥१४॥
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