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सेठ सुदर्शन गाथा ]
[ १८३ ज्यों सेठ गये थे अन्दर, दरवाजा बंद सु कीना। आसक्ति भरी नारी ने, निर्लज्ज प्रदर्शन कीना। वह मित्र गया था बाहर, कपिला ने चाल विचारी। हो सेठ रूप पर मोहित, उसने की थी तैयारी ॥२॥ फँस गये धर्म संकट में, तब सेठ विचार सु कीना। इससे तो मरण भला है, निज शील बिना क्या जीना? तब हँसे वचन यों बोले, वे अनेकांत के धारी। मैं तो हूँ अरे नपुंसक, तूने पहिले न विचारी ॥३॥ तत्क्षण ही घृणाभाव कर, हट गयी स्वयं ही पतिता। तब सेठ सहज घर आये, लेकर अपनी पावनता। पुरुषत्व शीलधारी का, नहीं होय कदापि विकारी। नहीं धर्म मार्ग से च्युत हो, रहते ज्ञानी अविकारी॥४॥
ओ भव्य समझना यों ही, आत्मा में शक्ति अनंता। पर ज्ञाता-दृष्टा ही है, नहीं होवे पर का कर्ता॥ आत्मन् अब भी तो चेतो, छोड़ो भ्रांति दुखकारी। कर्तृत्व विकल्प न लाओ, तब सुख पाओ अविकारी ।।५।। इक रोज वसंतोत्सव में, जाते थे सब नर-नारी। अभया रानी भी जावे, कपिला भी जाये बेचारी॥ तब रथ में आती देखी, सुत गोद लिये एक नारी। अभया रानी ने पूछा, किसके सुत सुन्दर प्यारी ॥६॥ दासी ने तुरन्त बताया, जो सेठ सुदर्शन नामी। उनके ही हैं सुत नारी, सुनकर कपिला मुस्कानी॥ है सेठ नपुंसक कैसे फिर वह नारी सुत धारी। हँस कर रानी तब बोली, धनि सेठ शील व्रतधारी ॥७॥ चाहा था उन्हें फंसाना, ठग गयी स्वयं ही तू तो। मूर्खा तू समझ न पाई, तत्काल सेठ युक्ति को॥
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