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[ वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह जल्दी करो अब न समय, मैं भावना भाऊँ। हो धर्म की प्रभावना, मैं शीश कटाऊँ । जबरन छिपा दिया, अहो धनि युक्ति यह आई ॥१७॥ धोबी को लेकर साथ फिर निकलंक थे दौड़े। आये निकट थे सैनिकों के शीघ्र ही घोड़े। आदर्श छोड़ गये अपना शीश कटाई ॥१८॥ होकर विरक्त ली अहो, अकलंक मुनि दीक्षा। शास्त्रार्थ में पाकर विजय, की धर्म की रक्षा ।। जिनधर्म की पावन पताका, फिर से फहराई ॥१९॥ राजा हिमशीतल की सभा, में था हुआ विवाद। छह माह तक बाँटा था, श्री जिनधर्म का प्रसाद॥ परदा हटा घट फोड़ तारा देवी भगाई ॥२०॥ निकलंक का उत्सर्ग तो, सोते से जगाये। अकलंक का दर्शन अहो, सद्बोध कराये॥ जिनशासन के नभ मण्डल में रवि-शशि सम दो भाई ॥२१॥ अकलंक अरु निकलंक का आदर्श अपनायें। युक्ति सद्ज्ञान, आचरण से धर्म दिपायें। मंगलमय ब्रह्मचर्य होवे हमको सहाई ॥२२॥
सेठ सुदर्शन गाथा धनि धन्य हैं सेठ सुदर्शन, अद्भुत शील व्रतधारी। जिनकी पावन दृढ़ता से, कुटिला नारी भी हारी टेक॥ इक रोज महल में बैठे, दासी ने आय बताया। तव मित्र बहुत घबड़ाये, इस क्षण ही तुम्हें बुलाया। कुछ छल को समझ न पाये, थे सरल परिणति धारी। वैसे ही दौड़े पहुँचे, पर वहाँ थी लीला न्यारी ॥१॥
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