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अकलंक-निकलंक गाथा ]
[ १८१ आराधना ही सुख स्वरूप मन में समाई ॥८॥ आशीष ले माता-पिता से, बौद्ध मठ गये। प्रच्छन्ना बौद्ध रूप में दर्शन सभी पढ़े। जैनों को शिक्षा पाने की थी सख्त मनाई ॥९॥ स्याद्वाद पढ़ाते श्लोक एक अशुद्ध हुआ। प्राचार्य थे बाहर गये, अकलंक शुद्ध किया। श्लोक शुद्ध करना हुआ, गजब दुखदाई ॥१०॥ प्राचार्य को शंका हुई, कोई जैन होने की। प्रतिमा दिगम्बर रखकर, आज्ञा दी थी लँघने की। तब धागा ग्रीवा में लपेट, लाँघ गये भाई ॥११॥ फिर अर्द्ध रात्रि के समय, घनघोर स्वर हुआ। अरहंत, सिद्ध कहते हुये, सैनिक पकड़ लिया। होकर निडर बोले थे हम, जिनधर्म अनुयायी ॥१२ ।। लालच दिये और भय दिखाये, पर नहीं डिगे। श्रद्धान से जिनधर्म के किंचित् नहीं चिगे। झुंझला कर निर्दय होकर, सजा मौत सुनाई ॥१३॥ पर रात्रि को ही भागे, कारागार से दोई। टाले कभी टलती नहीं, भवितव्य जो होई॥ पीछे दोड़ाये सैनिक अति ही क्रूरता छाई ॥१४॥ निकलंक बोले देखो भाई, आ रही सेना। हो धर्म की रक्षा, न कोई और कामना । छिप जाओ तुम तालाब में, मैं मरता हूँ भाई ॥१५॥ अकलंक कहा भाई तुम अपने को बचाओ। निकलंक बोले भ्रात उर में मोह मत लाओ। तुम अति समर्थ धर्म की रक्षा में हे भाई ॥१६॥
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