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[ वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह
अकलंक-निकलंक गाथा
अकलंक अरु निकलंक दो थे सहोदर भाई । प्राणों पर खेल की, धर्म की रक्षा सुखदाई ॥ टेक ॥ धनि धनि हैं भोगों को न अंगीकार ही किया। बचपन में ही मुनिराज से ब्रह्मचर्य व्रत लिया ॥ व्रत लेकर आनन्दमय जीवन की नींव धराई ॥१ ॥ तत्त्वज्ञान के अभ्यास में ही चित्त लगाया। दुर्वासनाओं की जिन्हें, नहीं छू सकी छाया ॥ दुर्मोहतम हो कैसे ?, ज्ञान ज्योति जगाई ॥२ ॥ अज्ञान में ही कष्टमय, संयम अरे भासे / संयम हो परमानन्दमय, जहाँ ज्ञान प्रकाशे ॥ इससे ही भेदज्ञान कला मूल बताई ॥३ ॥ बौद्धों का बोलबाला था. जिनधर्म संकट में। अत्याचारों से त्रस्त थे जिनधर्मी क्षण-क्षण में ॥ जिनधर्म की प्रभावना की भावना भाई ॥४ ॥ माता-पिता ने जब रखा, प्रस्ताव शादी का । बोले बरबादी का है मूल, स्वांग शादी का ॥ दिलवा करके ब्रह्मचर्य, तात ! क्या ये सुनाई ॥15 ॥ बोले पिता अष्टाह्निका, में मात्र व्रत दिया । हे तात! तुमने कब कहा, हम पूर्ण व्रत लिया ॥ मुक्ति के मार्ग में नहीं होती है हँसाई ॥६ ॥ आजीवन पालेंगे, हम तो ब्रह्मचर्य सुखकारी । सौभाग्य से पाया है, रत्न ये मंगलकारी ॥ भव रोग की एक मात्र ये ही साँची दवाई ॥७ ॥ मोदन करो सब ही अहो, हम ब्रह्मचर्य धारें । जीवन तो धर्म के लिये, हम मौत स्वीकारें ॥
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