________________
श्री देशभूषण - कुलभूषण गाथा ]
हो मूढ़ राग-रंग में, ना निज को भुलाओ । आनन्द से उल्लास से शिवमार्ग में आओ ॥४॥ निज कन्यायें लेकर, अनके राजा आये थे। देखा नहीं सुनकर ही वे मन में हरषाये थे ॥ सपने संजोये थी कन्यायें, उनको वरने की । उनमें भी होड़ लगी थी, उनके चित्त हरने की ॥ पर होनहार सो ही होवे विकल्प मत लाओ। आनन्द से उल्लास से शिवमार्ग में आओ ॥५ ॥ आते हुए उन राजपुत्रों को दिखी कमला । उल्लास से जिसकी दिखी तन कान्ति अति विमला ॥ कर्मोदय वश दोनों ही उस पर लुब्ध थे हुए । मन में विवाह की उससे ही लालसा लिए ॥ लखकर विचित्रता अरे सचेत हो जाओ । आनन्द से उल्लास से शिवमार्ग में आओ ॥६॥ इक कन्या को दो चाहते, संघर्ष हो गया। दोनों के भ्रातृ प्रेम का भी ह्रास हो गया ॥ धिक्कार इन्द्रिय भोगों को जो सुख के हैं घातक । रे भासते हैं मूढ़ को ही सुख प्रदायक ॥ कर तत्त्व का विचार श्वानवृत्ति नशाओ । आनन्द से उल्लास से शिवमार्ग में आओ ॥७ ॥ इच्छाओं की तो पूर्ति सम्भव नहीं होती । मिथ्या पर लक्ष्यी वृत्ति तो निजज्ञान ही खोती ॥ सुख का कारण इच्छाओं का अभाव ही जानो । उसका उपाय आत्मसुख की भावना मानो ॥ भवि भेदज्ञान करके आत्मभावना भाओ । आनन्द से उल्लास से शिवमार्ग में आओ ॥८ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
[ १७७
www.jainelibrary.org