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यशोधर गाथा ]
[१७३ निज दुष्कृत्यों पर अब नृप को, बार-बार ग्लानि आवे। ज्ञाता-दृष्टा रह जाऊँ बस, राग-द्वेष विनश जावें ॥८॥ मन की बात ऋषीश्वर जानी, बोले नृप क्या सोच रहे? पाप नहीं पापों से धुलते, आत्मघात क्यों सोच रहे ? प्राग्भाव है भूतकाल में, ग्लानि चिंता दूर करो। धर्म नहीं पहिचाना अब तक, तो अब ही पुरुषार्थ करो।। जागो तभी सवेरा राजन गया वक्त फिर नहिं आवे। ज्ञाता- दृष्टा रह जाऊँ बस, राग-द्वेष विनश जावें ॥९॥ पर्यायें तो प्रतिक्षण बदलें, मैं उन रूप नहीं होता। आभूषण बहु भाँति बनें, स्वर्णत्व नहीं सोना खोता। मत पर्यायों को ही देखो, ध्रुवस्वभाव पर दृष्टि धरो। परभावों से भिन्न ज्ञानमय, ही मैं हूँ श्रद्धान करो। ये ही निश्चय सम्यक् दर्शन, मुक्तिपुरी में ले जावे। ज्ञाता-दृष्टा रह जाऊँ बस, राग-द्वेष विनश जावें॥१०॥ सच्चे सुख का मार्ग प्रदर्शक, जिनशासन ही सुखकारी। भावी तीर्थंकर तुम होंगे, सोच तजो सब दुखकारी॥ आनंदित होकर श्रेणिक तब, जैनधर्म स्वीकार किया। अन्तर-दृष्टि धारण करके, सम्यग्दर्शन प्रगट किया। आयु बंध भी हीन हो गया, प्रथम नरक में ही जावे। ज्ञाता-दृष्टा रह जाऊँ बस, राग-द्वेष विनश जावें ॥११॥ देखो निमित्त सुख-दुख देता, झूठी पर की आश तजो। पर से भिन्न सहज सुख सागर में ही प्रतिक्षण केलि करो॥ दोष नहीं देना पर को, निज में सम्यक् पुरुषार्थ करो। मोह हलाहल बहुत पिया है, साम्य सुधा अब पान करो। साम्यभाव ही उत्तम औषधि, भ्रमण रोग जासों जावे। ज्ञाता-दृष्टा रह जाऊँ बस, राग-द्वेष विनश जावें ॥१२॥
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