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[वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह मोही पाप बंध करके भी देखो कैसा हरषाये । ज्ञाता-दृष्टा रह जाऊँ बस, राग-द्वेष विनश जावें ॥४॥ सुनकर दुखद भयानक घटना, भक्ति उर में उमड़ानी। त्याग अन्न जल उसी समय, उपसर्ग निवारण की ठानी। श्रेणिक बोला अरे प्रिये! क्यों मुनि ने कष्ट सहा होगा। मेरे आने के तत्क्षण ही, सर्प दूर फैंका होगा। अज्ञानी क्या ज्ञानी जन का, अन्तर रूप समझ पावें। ज्ञाता-दृष्टा रह जाऊँ बस, राग-द्वेष विनश जावे ॥५॥ बोली तुरन्त चेलना राजन् यदि वे सच्चे गुरु होंगे। उसी अवस्था में अविचल, निज ध्यान लीन बैठे होंगे। तुमने द्वेष भाव से भूपति, घोर पाप का बंध किया। मुनि पर कर उपसर्ग स्वयं को स्वयं दुख में डाल दिया। व्यर्थ कषायें करके प्राणी, खुद ही भव-भव दुख पावें। ज्ञाता-दृष्टा रह जाऊँ बस, राग-द्वेष विनश जावें ॥६॥ आगे-आगे चले चेलना उर दुख-सुख का मिश्रण था। कौतूहलमय विस्मय पूरित, श्रेणिक का अन्तस्तल था। परम शान्त निज ध्यान लीन, मुनिवर को ज्यों देखा ही था। किया दूर उपसर्ग शीघ्र ही, श्रद्धा से नत श्रेणिक था। ज्ञानीजन तो पहले सोचे, मूरख पीछे पछतावे। ज्ञाता-दृष्टा रह जाऊँ बस, राग-द्वेष विनश जावें ॥७॥ धन्य मुनीश्वर साम्यभाव धर, धर्मवृद्धि दोनों को दी। श्रेणिक और चेलना में नहिं, इष्ट-अनिष्ट कल्पना की। पश्चात्ताप नृपति को भारी, कैसे मुँह दिखलाऊँ मैं। अश्रुपूर्ण हो गये नेत्र अरु, आत्मघात आया मन में।
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