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यशोधर गाथा ]
[ १७१ यशोधर गाथा धन्य यशोधर मुनि-सी समता, मम परिणति में प्रगटावे। ज्ञाता-दृष्टा रह जाऊँ बस, राग-द्वेष विनश जावे ।।टेक ।। एक दिवस जंगल में मुनिवर, आतम ध्यान लगाया है। जैन धर्म प्रति द्वेष धरे, श्रेणिक मृगया को आया है। किन्तु यत्न सब व्यर्थ हुये, कोई शिकार नहिं पाता है। तभी शिला पर श्री मुनिवर का, पावन रूप दिखाता है। जिनकी वीतराग मुद्रा लख, भव-भव के दुःख नश जावें। ज्ञाता-दृष्टा रह जाऊँ बस, राग-द्वेष विनश जावें ॥१॥ जान चेलना के गुरु हैं, तो बदला लेने की ठानी। क्रूर शिकारी कुत्ते छोड़े, किंचित् दया न उर आनी॥ उन ऋषिवर का साम्यभाव लख, वे कुत्ते तो शान्त हुये। किन्तु समझ कीलित कुत्तों को, भाव नृपति के क्रुद्ध हुये। जैसी होनहार हो जिसकी, वैसी परिणति हो जावे। ज्ञाता-दृष्टा रह जाऊँ बस, राग-द्वेष विनश जावें ॥२॥ देखो सबका स्वयं परिणमन, निमित्त नहीं कुछ करता है। नहीं प्रेरणा, मदद, प्रभावित कोई किसी को करता है। वस्तु स्वभाव न जाने मूरख, व्यर्थ खेद अभिमान करे। ठाने उद्यम झूठे जग में, सदाकाल आकुलित रहे। छोड़ निमित्ताधीन दृष्टि निज भाव लखे सुख ही पावे। ज्ञाता-दृष्टा रह जाऊँ बस, राग-द्वेष विनश जावें ॥३॥ तत्क्षण सर्प भयंकर देखा, मार गले में डाल दिया। क्रूर रौद्र परिणामों से, तब नरक सातवाँ बंध किया। अट्टहास कर घर आया, पर तीन दिनों तक व्यस्त रहा। समाचार देने चौथे दिन, सती चेलना पास गया।
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