________________
श्री नेमिकुमार निष्क्रमण ]
[१६९ तोड़े कंगन के बंधन, सिर का मौर उतारा। धनि-धनि प्रभुवर का भाव ,जिससे काम था हारा ।। जिन-भावना भाते हुए गिरनार चल दिए। आसन्न भव्य दीक्षा लेने साथ चल लिए। गूंजा था जय-जयकार उत्सव धर्ममय हुआ। तपकल्याणक का शुभ नियोग देवों ने किया। साक्षात् दिगम्बर हुए अत्यन्त चाव से। प्रभु सम ही भाऊँ भावना, छू, विभाव से ॥६॥ ज्यों ही जाना यह हाल, राजुल हो गयी विह्वल। होकर सचेत शीघ्र ही, जागृत किया निज बल॥ परिवारी जन तो रागवश, अति खिन्न चित्त थे। शादी करें किसी और से, समझावते यों थे। बोली राजुल मत गालियाँ, मम शील को तुम दो। सतवंती नारियों का केवल, एक पति ही हो। नाता जोड़ा मैंने अब केवल, ज्ञायकभाव से। प्रभु सम ही भाऊँ भावना, छू, विभाव से॥७॥ व्यवहार में भी भाव से श्री नेमि स्वीकारे। दर्शाकर श्रेयो मार्ग वे, गिरनार पधारे । उनका ही पावन मार्ग, अंगीकार है मुझे। उनके द्वारा त्यागे भोगों, की चाह नहीं मुझे। आनंदित हो मोदन करो, मैं होऊँ आर्यिका। छोडूं स्त्रीलिंग नायूँ दुखमय बीज पाप का ॥ धारूँ निवृत्तिमय दीक्षा अति हर्षभाव से। प्रभु सम ही भाऊँ भावना, छूटू विभाव से ।८।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org