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[ वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह
पापों के बीज इन्द्रिय सुख, तो दुखमय ही अरे । परलक्षी इन्द्रिय ज्ञान भी अज्ञान जान रे ॥ अतीन्द्रिय सुख ही सुख जो पाते हैं जितेन्द्रिय । वे ही शिवसाधक हैं, जिन्हें हो ज्ञान अतीन्द्रिय ॥ अतीन्द्रिय ज्ञानानंदमय, शुद्धातम ही है सार । है सहज ज्ञेय - ध्येय रूप, मुक्ति का आधार ॥ शुद्धात्मा प्रभु नित्य निरंजन स्वभाव से । प्रभु सम ही भाऊँ भावना, छूहूँ विभाव से ॥३ ॥ तृति सहज ही प्राप्य निज में निज से ही सदा । है झूठी कल्पना भोगों से तृप्ति न कदा ॥ रहते अतृप्त, मूढ़ आत्मज्ञान के बिना । कितने भव यूँ ही बीत जावें संयम के बिना । होते हैं हास्य पात्र जो ले दीप भी गिरते । पाकर भी नरभव आत्मन फिर जग जाल में फँसते । कल्याण का अवसर गँवावें मूढ़ भाव से । प्रभु सम ही भाऊँ भावना, छूहूँ विभाव से ॥४ ॥ संयममय जीवन ही अहो, ज्ञानी को शोभता । बढ़ती प्रभावना सहज होती है पूज्यता ॥ जो त्यागने के योग्य ही, फिर क्यों करूँ स्वीकार । इससे अधिक क्या कायरता, नरभव की जिसमें हार । क्षण भी विलम्ब योग्य नहीं, कल्याणमार्ग में | निरपेक्ष हो बढ़ना मुझे अब मुक्तिमार्ग में ॥ निर्ग्रन्थ हो आराधँ निज पर्दै सहजभाव से ॥ प्रभु सम ही भाऊँ भावना, छूयूँ विभाव से ॥५ ॥
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