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श्री नेमिकुमार निष्क्रमण ]
[१६७ रुचि न लगे यदि कहीं तुम्हारी, एक बार निज को देखो। खुली हुई द्रव्यार्थिक चक्षु से निज महिमा को देखो। भ्रांति मिटेगी, शांति मिलेगी, सहज प्रतीति आयेगी। समाधान निज में ही होगा, आकुलता मिट जायेगी। चूक न जाना स्वर्णिम अवसर, करो निजातम का निश्चय ॥१०॥
श्री नेमिकुमार निष्क्रमण श्री नेमि प्रभु की वंदना कर, भक्ति भाव से। प्रभु सम ही भाऊँ भावना, छू, विभाव से।टेक॥ देखा पशुओं को रुका हुआ प्रभु हो गये गम्भीर। धिक्-धिक ऐसी विषयांधता, दीखे न पराई पीर ।। इन भोगों की अग्नि में कितने जीव हैं जलते।
और भोगी भी परिपाक में, भव भव में दुख सहते ॥ पीड़ा है विषय कषायों की, मृत्यु से भयंकर। हों सहने में असमर्थ तब फिर मूढ़ जन फँसकर ।। दोई भव नाशे, मोही व्यर्थ मोह भाव से। प्रभु सम ही भाऊँ भावना, छु, विभाव से ॥१॥ ऐसी शोभा से क्या जिसमें, निज-पर का पीड़न हो। ऐसी शादी से क्या जिसमें, दुखमय भव बंधन हो। स्वतंत्रता का हो हनन, आराधना का घात। परिग्रह के ग्रहण में होते, अगणित दुखमय उत्पात ॥ रहता है चंचल चित्त सदा, ही परिग्रहवान का। विषयों में जो आसक्त उनके, नित ही मलिनता ॥ सुख लेश भी पावे नहीं, अज्ञानभाव से। प्रभु सम ही भाऊँ भावना, छू, विभाव से ॥२॥
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