________________
१६६]
[ वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह आत्मज्ञान बिन चक्री इन्द्रादिक भी, तृप्ति नहीं पावें। सम्यक ज्ञानी नरकादिक में भी अपूर्व शान्ति पावें। इसीलिये चक्री तीर्थंकर, बाह्य विभूति को तजते। हो निग्रंथ दिगम्बर मुनिवर, चिदानन्द पद में रमते ॥ धन्य-धन्य वे ज्ञानी ध्यावें, समयसार निज समय-समय ॥५॥ चक्रवर्ती की नवनिधियाँ, पर निज निधियों का पार नहीं। चौदह रत्न चक्रवर्ती के, आतम गुण भण्डार सही॥ चक्रवर्ती का वैभव नश्वर, आत्म विभूति अविनाशी। जो पावे सो होय अयाची, कट जाये आशापाशी। झूठी दैन्य निराशा तजकर, पाओ वैभव मंगलमय ॥६॥ चंचल विपुल विकल्पों को तो, एक स्फुलिंग ही नाशे। आतम तेज पुञ्ज सर्वोत्तम, कौन मुमुक्षु न अभिलाषे॥ चिंतामणि तो पुण्य प्रमाणे, जग इच्छाओं को पूरे। धन्य-धन्य चेतन चिंतामणि, क्षण में वांछायें चूरे ।। निर्वांछक हो अहो अनुभवो, अविनश्वर कल्याण मय ॥७॥ जिनधों की पूजा करते, उनका धर्मी शुद्धातम। परमपूज्य जानो पहिचानो, शुद्ध चिदम्बर परमातम । परमपारिणामिक ध्रुव ज्ञायक, लोकोत्तम अनुपम अभिराम। नित्यनिरंजन परमज्योतिमय, परमब्रह्म अविचल गुणधाम॥ करो प्रतीति अनुभव परिणति, निज में ही हो जाये विलय ॥८॥ गुरु की गुरुता, प्रभु की प्रभुता, आत्माश्रय से ही प्रगटे। भव-भव के दुखदायी बंधन, स्वाश्रय से क्षण में विघटे।। आत्मध्यान ही उत्तम औषधि, भव का रोग मिटाने को। आत्मध्यान ही एक मात्र साधन है, शिवसुख पाने को। झूठे अंहकार को छोड़ो, शुद्धातम की करो विनय ॥९॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org