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अपनी वैभव गाथा 1
अपनी वैभव गाथा
( मरहठा - माधवी)
आत्मन् अपनी वैभव गाथा, सुनो परम आनन्दमय। स्वानुभूति से कर प्रमाण, प्रगटाओ सहज सौख्य अक्षय ॥ टेक ॥ स्वयं सिद्ध सत रूप प्रभो, नहिं आदि मध्य अवसान है। तीन लोक चूड़ामणि आतम, प्रभुता सिद्ध समान है ॥ सिद्ध प्रभू ज्यों ज्ञाता त्यों ही, तुम ज्ञाता भगवान हो । करो विकल्प न पूर्ण अपूर्ण का निर्विकल्प अम्लान हो ॥ निश्चय ही परमानन्द विलसे, सर्व दुखों का होवे क्षय ॥१ ॥ हों संयोग भले ही कितने, संयोगों से भिन्न सदा । नहीं तजे निजरूप कदाचित, होवे नहीं पररूप कदा ॥ कर्मबंध यद्यपि अनादि से, तदपि रहे निर्बन्ध सदा । वैभाविक परिणमन होय, फिर भी तो है निर्द्वन्द्व अहा ॥ देखो-देखो द्रव्यदृष्टि से, चित्स्वरूप अनुपम सुखमय ॥२॥ एक-एक शक्ति की महिमा, वचनों में नाहिं आवे । शक्ति अनंतों उछलें शाश्वत, चिन्तन पार नहीं पावे ॥ प्रभु स्वाधीन अखंड प्रतापी, अकृत्रिम भगवान अहो । जो भी ध्यावे शिवपद पावे, ध्रुव परमेष्ठी रूप विभो । भ्रम को छोड़ो करो प्रतीति, हो निशंक निश्चल निर्भय ॥३ ॥ केवलज्ञान अनंता प्रगटे, ऐसा ज्ञान स्वरूप अहो । काल अनंत-अनंतसुख विलसे, है अव्ययसुख सिंधु अहो ॥ अनंत ज्ञान में भी अनंत ही, निज स्वरूप दर्शाया है। पूर्णपने तो दिव्यध्वनि में भी, न ध्वनित हो पाया है ॥ देखो प्रभुता इक मुहूर्त में, सब कर्मों पर लहे विजयं ॥४ ॥
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