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[वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह वनिता बेड़ी गृह कारा, शोषक परिवार है सारा। शुभ जनित भोग जो पाई, वे भी आकुलता दायी ॥२४॥ सबविधि संसार असारा, बस निज स्वभाव ही सारा। निज में ही तृप्त रहूँ मैं, निज में संतुष्ट रहूँ मैं ॥२५॥ निज स्वभाव का लक्ष्य ले, मैंटू सकल विकल्प। सुख अतीन्द्रिय अनुभवू, यही भावना अल्प॥२६॥
सामायिक भावना
(हरिगीतिका) श्रीसिद्ध आगम अर्हत जिन, नमि प्रकट की जिन आत्मा। उन प्रशममय कृतकृत्य प्रभु सम, आत्म में विचरण करूँ॥१॥ कोलाहलों से रहित सम्यक्, शान्तता में तिष्ठ कर। सब कर्मध्वंसक ज्ञानमय, निज समय को अब मैं वरूँ॥२॥ समता मुझे सब जीव प्रति, नहिं बैर किञ्चित् भी रहा। मैं सर्व आशा रहित हो, सम्यक् समाधि को धरूँ॥३॥ हो राग वश या द्वेष वश मैंने विराधे जीव जो। उनसे क्षमा की प्रार्थना कर मैं क्षमा धारण करूँ॥४॥ मन वचन अथवा काय से, कृत कारिते अनुमोदते। निज रत्नत्रय में दोष लागे, गर्दा द्वारा परिहरूँ ॥५॥
आहार विषय कषाय तज, अत्यन्त शुद्धि भाव से। तिर्यंच मानव देव कृत, उपसर्ग में समता धरूँ ॥६॥ भय शोक राग अरु द्वेष, हर्ष अरु दीनता औत्सुक्यता। रति अरति के परिणाम तज, सर्वज्ञता अब मैं धरूँ ॥७॥ जीवन मरण या हानि लाभे, योग और वियोग में। मैं बन्धु-शत्रु दु:ख में, या सुक्ख में, सम ही रहूँ॥८॥
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