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सामायिक पाठ ]
[१६१ लब्धि त्रय मैंने पायी, अनुभव की लगन लगायी। अतएव प्रभो मैं चाहूँ, सबके प्रति समता लाऊँ ॥१२॥ नहिं इष्टानिष्ट विचारूँ, निज सुक्ख स्वरूप संभारूँ। दुःखमय हैं सभी कषायें, इनमें नहिं परिणति जाये ॥१३॥ वेश्या सम लक्ष्मी चंचल, नहिं पकडूं इसका अंचल। निर्ग्रन्थ मार्ग सुखकारी, भाऊँ नित ही अविकारी ॥१४॥ निज रूप दिखावन हारी, तव परिणति जो सुखकारी। उसको ही नित्य निहारूँ, यावत् न विकल्प निवारूँ॥१५॥ तुम त्याग अठारह दोषा, निजरूप धरो निर्दोषा। वीतराग भाव तुम भीने, निज अनन्त चतुष्टय लीने ॥१६॥ तुम शुद्ध बुद्ध अनपाया, तुम मुक्तिमार्ग बतलाया। अतएव मैं दास तुम्हारा, तिष्ठो मम हृदय मंझारा ॥१७॥ तव अवलम्बन से स्वामी, शिवपद पाऊँ जगनामी। निर्द्वन्द्व निशल्य रहाऊँ, श्रेणि चढ़ कर्म नशाऊँ ॥१८॥ जिनने मम रूप न जाना, वे शत्रु न मित्र समाना। जो जाने मुझ आतम रे, वे ज्ञानी पूज्य हैं मेरे ॥१९॥ जो सिद्धात्मा सो मैं हूँ, नहिं बाल युवा नर मैं हूँ। सब तैं न्यारो मम रूप, निर्मल सुख ज्ञान स्वरूप॥२०॥ जो वियोग संयोग दिखाता, वह कर्म जनित है भ्राता। नहिं मुझको सुख दुःखदाता, निज का मैं स्वयं विधाता ।।२१ ।। आसन संघ संगति शाला, पूजन भक्ति गुणमाला। इन समाधि नहिं होवे, निज में थिरता दुःख खोवे ॥२२॥ घिन गेह देह जड़ रूपा, पोषत नहिं सुक्ख स्वरूपा। जब इससे मोह हटावे, तब ही निज रूप दिखावे ॥२३॥
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