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________________ आत्म-भावना [१६३ मम ज्ञान में है आत्मा, दर्शन चरित में आत्मा। प्रत्याख्यान संवर योग में भी मात्र है मम आत्मा ॥९॥ दृग ज्ञान लक्षित और शाश्वत, मात्र आत्मा मैं अरे। अरु शेष सब संयोग लक्षित, भाव मुझसे हैं परे ॥१०॥ संयोगदृष्टि की सदा से, इसलिए दुःख अनुभवे। संयोगदृष्टि दुखमय, मन-वचन-तन से अब तनँ।॥११॥ जो समय मय रहते सदा अरु मोक्ष जिनकी दशा में। उन सम समय की प्राप्ति हेतु, भक्ति से निज प्रभु नपूँ॥१२॥ आत्म-भावना (तर्ज- मेरी भावना) निजस्वभाव में लीन हुए, तब वीतराग सर्वज्ञ हुए। भव्य भाग्य अरु कुछ नियोग से, जिनके वचन प्रसिद्ध हुए ॥१॥ मुक्तिमार्ग मिला भव्यों को, वे भी बंधन मुक्त रहें। उनमें निजस्वभाव दर्शकता, देख भक्ति से विनत रहें॥२॥ वीतराग सर्वज्ञ ध्वनित जो, सप्त तत्त्व परकाशक है। अविरोधी जो न्याय तर्क से, मिथ्यामति का नाशक है ॥३॥ नहीं उल्लंघ सके प्रतिवादी, धर्म अहिंसा है जिसमें। आत्मोन्नति की मार्ग विधायक, जिनवाणी हम नित्य नमें ॥४॥ विषय कषाय आरम्भ न जिनके, रत्नत्रय निधि रखते हैं। मुख्य रूप से निज स्वभाव, साधन में तत्पर रहते हैं ।।५।। अट्ठाईस मूल गुण जिनके, सहज रूप से पलते हैं। ऐसे ज्ञानी साधु गुरु का, हम अभिनन्दन करते हैं ॥६॥ उन सम निज का हो अवलम्बन, उनका ही अनुकरण करूँ। उन ही जैसी परिचर्या से, आत्मभाव को प्रकट करूँ ॥७॥ अष्ट मूलगुण धारण कर, अन्याय अनीति त्यागूं मैं। छोड़ अभक्ष्य सप्त व्यसनों को, पंच पाप परिहारूँ मैं ॥८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003172
Book TitleBruhad Adhyatmik Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Devlali
PublisherKundkundswami Swadhyaya Mandir Trust Bhind
Publication Year2008
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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