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सामायिक पाठ ]
[ १५७ बे इन्द्रिय तिय चउ पञ्चेन्द्रिय माहिं जीव सब। तिनतें क्षमा कराऊँ मुझ पर क्षमा करो अब ॥१२॥ इस अवसर में मेरे सब सम कञ्चन अरु तृण। महल मसान समान शत्रु अरु मित्रहिं सम गण ।। जामन मरण समान जानि हम समता कीनि। सामायिक का काल जितै यह भाव नवीनी॥१३॥ मेरो है इक आतम तामें ममत जु कीनो।
और सबै मम भिन्न जानि समतारस भीनो॥ मात-पिता सुत बंधु मित्र तिय आदि सबै यह। मोतें न्यारे जानि जथारथ रूप करयो गह ॥१४॥ मैं अनादि जगजाल माहिं फँसि रूप न जाण्यो। एकेन्द्रिय दे आदि जन्तु को प्राण हराण्यो । ते सब जीवसमूह सुनो मेरी यह अरजी। भव-भव को अपराध छिमा कीज्यो कर मरजी ॥१५॥
॥ चतुर्थ स्तवन कर्म॥ नमों ऋषभ जिनदेव अजित जिन जीत कर्म को। संभव भवदुखहरण करण अभिनंद शर्म को। सुमति सुमति दातार तार भवसिंधु पार कर। पद्मप्रभु पद्माभ भानि भव भीति प्रीति धर ॥१६॥ श्री सुपार्श्व कृतपाश नाश भव जास शुद्ध कर। श्री चन्द्रप्रभ चंद्रकांति सम देह कांति धर ।। पुष्पदंत दमि दोषकोश भविपोष रोषहर। शीतल शीतल करण हरण भव ताप दोषहर॥१७॥ श्रेयरूप जिनश्रेय ध्येय नित सेय भव्यजन। वासुपूज्य शतपूज्य वासवादिक भवभयहन॥
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