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[ वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह
सो सब झूठो होऊ जगतपति के परसादें । जा प्रसाद तें मिलें सर्व सुख दुःख न लार्धं ॥ ६ ॥ मैं पापी निर्लज्ज दयाकरि हीन महाशठ | किये पाप अघ ढ़ेर पापमति होय चित्त दुठ ॥ निंदू हूँ मैं बार-बार निज जिय को गरहुँ । जा प्रसाद तें मिलें सर्व सुख दुःख न लाधै ॥७ ॥ दुर्लभ है नरजन्म तथा श्रावक कुल भारी। सत संगति संयोग धर्म जिन श्रद्धा धारी ॥ जिन वचनामृत धार समावर्ती जिनवानी । तोह जीव संहारे धिक् धिक् धिक् हम जानी ॥८ ॥ इन्द्रियलम्पट होय खोय निज ज्ञान जमा सब । अज्ञानी जिमि करै तिसि विधि हिंसक है अब ॥ गमनागमन करंतो जीव विराधे भोले । ते सब दोष किये निन्दूँ अब मन वच तोले ॥९ ॥ आलोचनविधि थकी दोष लागे जु घनेरे । ते सब दोष विनाश होउ तुमतैं जिन मेरे || बार-बार इस भांति मोह मद दोष कुटिलता । ईर्षादिक तें भये निंदिये जे भयभीता ॥१० ॥
तृतीय सामायिक भाव कर्म ॥
सब जीवन में मेरे समताभाव जग्यो है। सब जिय मो सम समता राखो भाव लग्यो है ॥ आर्त्त रौद्र द्वय ध्यान छांडि करिहूँ सामायिक | संयम मो कब शुद्ध होय यह भावबधायक ॥ ११ ॥ पृथ्वी जल अरु अग्नि वायु चउकाय वनस्पति। पंचहि थावरमांहि तथा त्रस जीव बसैं जित ॥
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