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परमानन्द स्तोत्र ]
[१३१ संकल्प-विकल्पों को नाश करने से समुत्पन्न जो ज्ञानरूपी सुधारस उसको तपस्वी महात्मा ज्ञानरूपी अञ्जुलि से पीते है ।।५॥
जो पुरुष सदा ही परमानन्दविशिष्ट आत्मा को जानता है, वही (वास्तव में) पण्डित है और वही पुरुष परमानन्द के कारणभूत अपनी आत्मा की सेवा करता है ॥६॥
__ जैसे कमलपत्र के ऊपर पानी की बूंद कमल से सदा ही भिन्न रहती है, उसी प्रकार यह निर्मल आत्मा शरीर के भीतर रहकर भी स्वभाव की अपेक्षा शरीर से सदा भिन्न ही रहता है। अथवा कार्माण शरीर के भीतर रहकर भी शरीरजन्य रागादि मलों से सदा अलिप्त रहता है ॥७॥
इस चैतन्य आत्मा का स्वरूप निश्चय से ज्ञानावरणादिरूप द्रव्यकर्मों से रहित, रागद्वेषादि भावकों से शून्य और औदारिकादि शरीररूप नोकर्मों से पृथक जानो ॥८॥
जैसे जन्मांध पुरुष सूर्य को नहीं जानता है, वैसे ही शरीर के भीतर स्थित परमात्मा के आनन्दमय स्वरूप को ध्यानहीन पुरुष नहीं जान पाते हैं ॥९॥
जिस ध्यान के द्वारा यह चंचल मन स्थिर होकर परमानन्दस्वरूप में विलीन(मग्न) हो जाता है, वही ध्यान (मोक्ष के इच्छुक) भव्य जीव करते हैं तथा उसी समय चैतन्य चमत्कारमात्र शुद्ध परमात्मा का साक्षात् दर्शन होता है॥१०॥
उत्तम ध्यान करने वाले जो मुनि हैं, वे नियम से सभी दुःखों से छूट जाते हैं तथा शीघ्र ही परमात्मपद को प्राप्त करके (और बाद में अयोग केवली होकर) क्षण मात्र में में ही मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं ॥११॥
निज स्वभाव में लीन हुए मुनि ही समस्त संकल्प-विकल्पों से रहित परमानन्दमय परमात्मा के स्वरूप में निरन्तर तन्मय रहते हैं और इस प्रकार के योगी महात्मा ही परमात्मस्वरूप को स्वयं जानते हैं ॥१२॥
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