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स्वयंभू स्तोत्र ]
श्री अरनाथ जिन - स्तुति
(पद्धरि छन्द)
गुण थोड़े बहुत कहे बढ़ाय, जग में थुति सो ही नाम पाय। तेरे अनन्त गुण किम कहाय, स्तुति तेरी कोई विधि न थाय ॥८६ ॥
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तो भी मुनीन्द्र शुचि कीर्तिधार, तेरा पवित्र शुभ नाम सार । कीर्तन से मन हम शुद्ध होय, तातैं कहना कुछ शक्ति जोय ॥८७॥
तुम मोक्ष चाह को धार नाथ, जो भी लक्ष्मी सम्पूर्ण साथ । सब चक्र चिह्न सह-भरत - राज्य, जीरण तृणवत् छोड़ा सुराज्य ॥८८ ॥
तुम रूप परम सुन्दर विराज, देखन को उमगा इन्द्रराज । दो- लोचन - धर कर सहस नयन, नहिं तृप्त हुआ आश्चर्य भरन ॥८९ ॥
जो पापी सुभट कषाय धार, ऐसा रिपु मोह अनर्थकार । सम्यक्त्व ज्ञान संयम सम्हार, इन शस्त्रन से कीना संहार ॥९० ॥
यह काम धरत बहु अहंकार, त्रय लोक प्राणिगण विजयकार । तुमरे ढिग पाई उदयहार, तब लज्जित हुआ है अपार ॥ ९१ ॥
तृष्णा सरिता है अति उदार, दुस्तर इह - परभव दुःखकार । विद्या- नौका चढ़ रागरिक्त, उतरे तुम पार प्रभु विरक्त ॥ ९२ ॥
यमराज जगत को शोककार, नित जरा जन्म द्वै सखा धार । तुम यमविजयी लख हो उदास, निज कार्य करन समरथ न तास ॥९३ ॥
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