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वैराग्य पाठ संग्रह
वैराग्य द्वादशी ध्याऊँ परम आनन्दमय, चैतन्य प्रभु अम्लान। एक ही है शरण जग में हुआ अब श्रद्धान॥ नित्य अविकारी प्रभु पक्षातिक्रान्त निहार। कह सकूँ नहीं हुआ मोहि आनन्द अपरम्पार ।।टेक।। देवदर्शन का अलौकिक फल मिला सुखकार। ज्ञान में प्रत्यक्ष जनावे सहज जाननहार ।। उछलती हैं शक्तियाँ चैतन्य माँहिं अपार ॥ कह सकूँ नहीं....॥१॥ भ्रान्तिवश भ्रमता रहा परमाँहिं सुख विचार। जाना-देखा नहीं शुद्धात्मा, आनन्द का भण्डार। धनि मिली प्रभु देशना,पाया समय का सार ।कह सकूँनहीं....॥२॥ चाह नहीं चिंता नहीं, परिपूर्ण तत्त्व दिखाय। अतीन्द्रिय स्वाधीन सुखसागर सहज लहराय॥ अविरल निमग्न रहूँअहो, दीखे नहीं संसार ।। कह सकूँ नहीं....॥३॥ आत्मीक वैभव अलौकिक दिखे अखय अनन्त। जयवन्त होवे स्वानुभूति सत्य मुक्तिपंथ ।। स्वानुभव में ही दिखे शिवरूप मंगलकार ॥ कह सकूँ नहीं....॥४॥ ज्ञानमय निज स्वाद पाया और कुछ न सुहाय। संकल्प और विकल्प मिथ्या लगे सब दुखदाय ।। प्रगट हो निर्ग्रन्थ पद आनन्दमय अविकार ।। कह सकूँ नहीं....॥५॥ वन माँहिं नित निर्विघ्न, आराधैं सहज परमात्म। स्वप्न में भी ध्यान में वर्ते अहो शुद्धात्म ।। खिन्नता किंचित् नहो गर मिले नहीं आहार ।। कह सकूँ नहीं....॥६॥ सहज समताभाव हो ज्ञाता रहूँ निरपेक्ष। देवांगनाएँ भी न चित्त में कर सकें विक्षेप॥ निर्दोष ज्ञान-विरागमय चर्या हो निरतिचार ॥ कह सकूँ नहीं....॥७॥
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