________________
70
वैराग्य पाठ संग्रह पति को तो पत्नी रूप दिखे, भाई को भगिनी दिखती है। सुत को माता, पुत्री पितु को, ज्यों दृष्टि है त्यों सृष्टि है॥५॥ केमरा वस्त्र अरु चर्म ग्रहे, अस्थि एक्स-रे का विषय बने। त्यों अज्ञानी उपरोक्त लखे, पर ज्ञानी को चैतन्य दिखे ॥६॥ व्यवहार चतुर आगम प्रवीण, भी उसको लख चिंतन करता। चैतन्य विराधन कर माया से, आत्मा स्त्री तन धरता॥७॥ यदि इसके हाव-भाव लखकर, मैं अपना धर्म विसारूँगा। तो पाप बंध होगा भारी, नरभव की बाजी हारूँगा॥८॥ यह भव तो भव के नाश हेतु, चिन्तामणि सम मैंने पाया। नारी की माया से हटकर, पाऊँगा रत्नत्रय माया॥९॥ निज आत्मतत्त्व है निर्विकार, उसका अवलम्बन मुझे उचित। इससे विकार करना न योग्य, बस रहना ज्ञायक मुझे उचित ॥१०॥ स्त्री पर्याय को पाकर भी, जो ज्ञानरूप चेतन देखे। तो सम्यक्त्वी होकर निश्चय, यह स्त्रीलिंग तत्क्षण छेदे ॥११॥ ऐसा विचार कर यदि उर से, किंचित् करुणा का स्रोत बहे। तो जम्बूस्वामी सम विरक्त उस उर में भी वैराग्य भरे॥१२॥ अरु ध्यान दशा में निर्विकल्प स्वाभाविक परिणति होती है। निजज्ञायक में जागृति रहे, परिणति बाहर से सोती है॥१३।। हैं धन्य-धन्य वे जीव सदा, जो हैं ऐसी परिणति धारी। उनकी महिमा के वर्णन में, इन्द्रों की भी बुद्धि हारी ।।१४।। मैं बार-बार उनके चरणों में, सादर शीश नवाता हूँ। उन सम ही होऊँ निर्विकार, बस यही भावना भाता हूँ॥१५॥
(दोहा) परमब्रह्म लखता रहूँ, एक अचल निज-भाव। पूर्ण अखण्डित शील हो, मे, सकल-विभाव।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org