________________
वैराग्य पाठ संग्रह
सर्प काँचली मात्र तजे से ज्यों निर्विष नहीं होय । केवल बाह्य-त्याग से त्यों ही सुख शान्ति नहीं होय ॥ मिथ्या राग-द्वेष को त्यागें शुद्धभावमय दान । अहो दशलक्षण धर्म महान, अहो दशलक्षण धर्म महान ॥८॥ नहिं परमाणु मात्र भी अपना, सम्यक् श्रद्धा लावें, मूर्च्छा भाव परिग्रह दुःखमय तज शाश्वत सुख पावें । स्वयं-स्वयं में पूर्ण अनुभवन आकिंचन अम्लान || अहो...॥ ९ ॥ ब्रह्मस्वरूप सहज आनन्दमय अकृत्रिम भगवान, दूर रहे जहँ पुण्य-पापमय भाव कुशीली म्लान । ब्रह्मभावमय मंगलचर्या ब्रह्मचर्य सुखखान ॥ अहो...॥ १० ॥ धर्मी शुद्धातम को जाने बिना धर्म नहीं होय, अरे अटक कर विषय - कषायों में मत अवसर खोय । कोटि उपाय बनाय भव्य अब करले आतमज्ञान ॥ अहो...॥११॥ भावें नित वैराग्य भावना धरें भेद-विज्ञान, त्याग अडम्बर होय दिगम्बर ठानें निर्मल ध्यान । धर्ममयी श्रेणी चढ़ जावें बनें सिद्ध भगवान ॥ अहो...॥ १२ ॥ नारी स्वरूप
यदि द्रव्यदृष्टि से देखो तो नारी तो कोई द्रव्य नहीं । असमान जाति का नाम मात्र, उसमें तो सुख है नहीं कहीं ॥ १ ॥ जिस तन पर रीझ रहा मोही, वह तो पुद्गल का पिण्ड अरे । परिणति में आस्रव बंध चले, उसमें भीतर चैतन्य रहे॥ २ ॥ वह तो तेरे सम ही भाई, किंचित् विकार अस्तित्व नहीं । उसको निरखे भागे विकार, समता से होवे मुक्ति - मही || ३ || पर्यायमूढ़ मिथ्यात्वी को, निज भोग योग्य वह है दिखती। ज्यों रोग पीलिया होने पर, शुभ श्वेत वस्तु पीली दिखती ॥४॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
69
www.jainelibrary.org