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वैराग्य पाठ संग्रह रंचमात्र न पापमय होवे प्रवृत्ति कदापि। पदयोग्य हों शुभ भाव भी उनसे विरक्ति तथापि॥ शुद्धोपयोगी सहज परिणति होय मंगलकार ।। कह सकूँ नहीं हुआ मोहि आनन्द अपरम्पार ॥८॥ सातिशय अप्रमत्त सप्तम अधःकरण निवार । हो अपूर्वकरण तथा अनिवृत्तिकरण सुखकार । सूक्ष्मलोभ भी नष्ट हो वीतरागताअविकार ॥कह सकूँ नहीं....॥९॥ नशि जाय त्रेसठ प्रकृति हो अरहंत पद अविकार। तीर्थ का होवे प्रवर्तन, जगत में सुखकार ।। पुनिघाति शेष अघातिया होलहूँ शिवपद सार । कह सकूँ...॥१०॥ नहीं अपेक्षा अब किसी की सहज मिलि हैं योग। सहज-जीवन सहज-साधन सहज-भाव मनोग। मुक्ति ही मानो मिली जब मिला जाननहार ।। कह सकूँ....॥११॥
कर्तव्याष्टक आतम हित ही करने योग्य, वीतराग प्रभु भजने योग्य। सिद्ध स्वरूप ही ध्याने योग्य, गुरु निर्ग्रन्थ ही वंदन योग्य ॥१॥ साधर्मी ही संगति योग्य, ज्ञानी साधक सेवा योग्य। जिनवाणी ही पढ़ने योग्य, सुनने योग्य समझने योग्य ॥२॥ तत्त्व प्रयोजन निर्णय योग्य, भेद-ज्ञान ही चिन्तन योग्य। सब व्यवहार हैं जानन योग्य, परमारथ प्रगटावन योग्य ।।३।। वस्तुस्वरूप विचारन योग्य, निज वैभव अवलोकन योग्य। चित्स्वरूप ही अनुभव योग्य, निजानंद ही वेदन योग्य ॥४॥ अध्यातम ही समझने योग्य, शुद्धातम ही रमने योग्य। धर्म अहिंसा धारण योग्य, दुर्विकल्प सब तजने योग्य ||५|| श्री जिनधर्म प्रभावन योग्य, ध्रुव आतम ही भावन योग्य । सकल परीषह सहने योग्य, सर्व कर्म मल दहने योग्य ।।६।।
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