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वैराग्य पाठ संग्रह
आत्मशान्ति मिलती कब धन से, चिन्ताओं का है वह गेह । होने देता नहीं तनिक भी, मोक्ष साधनों से शुभ नेह ||४|| दुग्धपान से ज्यों सर्पों में, होता अधिक गरल विस्तार । धन संचय से त्यों बढ़ते हैं, कभी-कभी मन में कुविचार ॥ इसकी वृद्धि कभी मानव को, अहो बना देती है अन्ध । दुखिया से मिलने में इसको, आती हाय ! महा दुर्गन्ध ॥५॥ हे चेतन धन की ममता वश, भोगे तुमने कष्ट अपार । देखो अपने अमर द्रव्य को, जहाँ सौख्य का पारावार ॥ देवों का वैभव भी तुमको, करना पड़ा अन्त में त्याग । तो अब प्रभु के पदपंकज में, बनकर भ्रमर करो शुभ राग ॥ ६ ॥ इन्द्र-भवन से बनवाता है, सुख के लिए बड़े प्रासाद । क्या तेरे यह संग चलेंगे, इसको भी तू करना याद ।। इस तन में से जिस दिन चेतन, कर जायेगा आप प्रयाण । जाना होगा उस घर से ही, तन को बिना रोक शमशान ॥७॥ अपना-अपना मान जिन्हें तू, खिला-पिलाकर करता पुष्ट । अवसर मिलने पर वे ही जन, करते तेरा महा-अनिष्ट ॥ ऐसी-ऐसी घटनाओं से भरे हुए इतिहास पुराण । पढ़कर सुनकर नहीं समझता, यही एक आश्चर्य महान ॥ ८ ॥ क्षण-क्षण करके नित्य निरन्तर, जाता है जीवन का काल । करता नहीं किन्तु यह चेतन, क्षण भर भी अपनी सम्भाल | दु:ख इसे देता रहता है, इसका ही भीषण अज्ञान । सत्पुरुषों से रहे विमुख नित, प्रगटे लेश न सम्यग्ज्ञान || ९ || मिला तुझे है मानव का भव, कर सत्वर ऐसा सदुपाय | मिले सौख्यनिधि अपनी उत्तम, जनम-मरण का दुःख टल जाय ॥
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