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वैराग्य पाठ संग्रह
रोगादिक पीड़ित रहे, महा कष्ट जो होय। तबहु मूरख जीव यह, धर्म न चिन्तै कोय ॥२१॥ मरन समै विललात है, कोऊ लेहु बचाय। जाने ज्यों-त्यों जीजिये, जोर न कछु बसाय ।।२२।। फिर नरभव मिलिवो नहीं, किये हु कोट उपाय। तातें बेगहिं चेतह, अहो जगत के राय ।।२३।। 'भैया' की यह बीनती, चेतन चितहिं विचार। ज्ञान दर्श चारित्र में, आपो लेहु निहार ।।२४।। एक सात पंचास को, संवत्सर सुखकार। पक्ष सुकल तिथिधर्म की जैजै निशिपतिवार ।।२५।।
आत्म सम्बोधन (वैराग्यभावना) हे चेतन ! तुम शान्तचित्त हो, क्यों न करो कुछ आत्मविचार। पुनः पुनः मिलना दुर्लभ है, मोक्ष योग्य मानव अवतार ।। भव विकराल भ्रमण में तुझको, हुई नहीं निजतत्त्व प्रतीति। छूटी नहीं अन्य द्रव्यों से, इस कारण से मिथ्या प्रीति॥१॥ संयोगों में दत्त चित्त हो, भूला तू अपने को आप। होने को ही सुखी निरन्तर, करता रहता अगणित पाप। सहने को तैयार नहीं जब, अपने पापों का परिणाम । त्याग उन्हें दृढ़ होकर मन में, कर स्वधर्म में ही विश्राम ॥२॥ सत्य सौख्य का तुझे कभी भी, आता है क्या कुछ भी ध्यान। विषयजन्य उस सुखाभास को, मान रहा है सौख्य महान।। भवसुख के ही लिए सर्वथा, करता रहता यत्न अनेक। जान-बूझकर फंसता दुःख में, भुला विमल चैतन्य विवेक।।३।। मान कभी धन को सुख साधन, उसे जुटाता कर श्रम घोर। मलता रह जाता हाथों को, उसे चुरा लेते जब चोर ।।
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