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वैराग्य पाठ संग्रह
सुखप्रद वही एक है जीवन, जहाँ स्वच्छ है तत्त्व प्रधान । बाकी तो मनुजों का जीवन, सचमुच तो है मृतक समान ॥ १० ॥ सुखदायक क्या हुए किसी को, जगती में ये भीषण भोग । अहि समान विकराल सर्वथा, जीवों को इनका संयोग ॥ छली मित्र सम ऊपर से ये दिखते हैं सुन्दर अत्यन्त । कर देती जीवन का अन्त ॥ ११ ॥
पर इनकी रुचि मात्र विश्व में
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स्पर्शन इन्द्रिय के वश ही, देखो वनगज भी बलबान । पड़कर के बन्धन में सहसा, सहता अविरल कष्ट महान || मरती स्वयं पाश में फंसकर, रसनासक्त चपल जलमीन । सुध-बुध खो देता है अपनी, भ्रमर कमल में होकर लीन ॥ १२ ॥
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दीपक पर पड़कर पतंग भी, देता चक्षु विवश निज प्राण । सुनकर हिंसक - शब्द मनोहर, रहता नहीं हिरन को ध्यान || एक विषय में लीन जीव जब, पाता इतने कष्ट अपार । पाँच इन्द्रियों के विषयों में लीन सहेगा कितनी मार ||१३||
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जनम-जनम में की है चेतन, तूने सुख की ही अभिलाष । हुआ नहीं फिर भी किञ्चित् कम, अबतक भी तेरा भववास ॥ त्रिविध ताप से जलता रहता, अन्तरात्मा है दिन-रात | कर सत्वर पुरुषार्थ सत्य तू, जग प्रपञ्च में देकर लात ॥१४॥ रोगों का जिसमें निवास है, अशुचि पिण्ड ही है यह देह । देख कौन सी इसमें सुषमा, करता है तू इस पर नेह || तेरे पीछे लगा हुआ है, हा ! अनादि का मोह पिशाच । छुड़ा स्वच्छ रत्नों को प्रतिपल, ग्रहण कराता रहता काँच ॥ १५ ॥
भूल आप को क्षणिक देह में, तुझे हुआ जो राग अपार । बढ़ता रहता राग-द्वेष से, महादुःखद तेरा संसार ॥
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