________________
115
वैराग्य पाठ संग्रह तब समझा यह तो बहिन है जिस पर ललचाये थे। ग्लानि मन में ऐसी हुई, कुछ कह नहिं पाये थे। नाशा विकार ज्ञान से, प्रत्यक्ष लखाओ॥ आनन्द... ॥९॥ ज्यों ही जाना हम भाई हैं, यह तो पावन भगिनी। फिर कैसे जागृत हो सकती है, वासना अग्नि । त्यों ही मैं ज्ञायक हूँ ऐसी अनुभूति जब होती। तब ही रागादिक परिणति तो सहज ही खोती॥ अतएव स्वानुभूति का पुरुषार्थ जगाओ। आनन्द से उल्लास से शिवमार्ग में आओ॥१०॥ अज्ञान से उत्पन्न दुख तो ज्ञान से नाशे। अस्थिरता जन्य विकार भी थिरता से विनाशे॥ भोगों के भोगने से इच्छा शान्त नहीं होती। अग्नि में ईंधन डालने सम शक्ति ही खोती।। अतएव सम्यग्ज्ञान कर, संयम को अपनाओ। आनन्द... ॥११।। दोनों कुमार सोचते थे, प्रायश्चित सुखकर। इसका यही होवेगा, हम तो होंय दिगम्बर ।। दुनिया की सारी स्त्रियाँ, हम बहिन सम जानी। आराधे निज शुद्धात्मा दुर्वासना हानी ।। निष्काम आनंदमय परम जिनमार्ग में आओ। आनन्द... ॥१२॥ ऐसा विचार करते ही सब खेद मिट गया। अक्षय मुक्ति के मार्ग का फिर, द्वार खुल गया। अज्ञानी पश्चात्ताप की अग्नि में जलते हैं। ज्ञानी तो दोष लगने पर प्रायश्चित्त करते हैं। शुद्धात्म आश्रित भावमय प्रायश्चित्त प्रगटाओ। आनन्द... ॥१३॥ हम कर्म के प्रेरे बहिन, दुर्भाव कर बैठे। अज्ञानवश निज शील का उपहास कर बैठे।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org