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आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह
(पद्धरि) जयवन्तो जग में धर्म तीर्थ, मंगलमय मंगलकरण तीर्थ । सब पाप नशावें धर्म तीर्थ, शिवपथ दर्शावें धर्म तीर्थ ।। निज शुद्धातम परमार्थ तीर्थ, रत्नत्रय है व्यवहार तीर्थ। अध्यात्म कथन यह सारभूत, भविजन हित हेतु निमित्त भूत ॥ धर्मी से सम्बन्धित जु होय, हो धर्म क्षेत्र जगपूज्य सोय। निर्वाण भूमि तिनमें महान, पूजों विशेष धरि भेदज्ञान ।। कैलाशशिखर प्रभु आदिनाथ, गिरनारशिखर प्रभु नेमिनाथ । चम्पापुर वासुपूज्य प्रभुवर, पावापुर महावीर जिनवर ।। तीर्थंकर बीस सम्मेद शिखर, पायो निर्वाण अचल सुखकर। है सर्वक्षेत्र मंगल स्वरूप, जहँ तें भये प्रभुवर सिद्ध रूप ।। पूजत उपजे आनन्द महान, निज सिद्धरूप का होय ध्यान। तब देहादिक अतिभिन्न लगे, शिवसाधन में पुरुषार्थ जगे॥ कर्मादि शून्य ज्ञायक स्वरूप, निर्मम अखण्ड आनंद रूप। मैं सहज मुक्त मैं नित्यमुक्त, निर्दोष निजातम सुगुण युक्त। यों हुई प्रतीती सुक्खरूप, भावें न स्वाँग जड़ के विरूप। निग्रंथ भावना सुक्खकार, वर्ते शिवदाता दुःखहार ।। साधक हो साधू पूर्ण भाव, नायूँ भव कारण सब विभाव ।
यों भाव धार करता प्रणाम, उर बसे परम तीरथ ललाम ।। ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशति तीर्थङ्कर निर्वाणक्षेत्रेभ्योऽनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालाऽयं नि.स्वाहा।
(दोहा) सिद्धक्षेत्र पूजन करें, सिद्ध रूप को ध्यान । धरें परम आनन्दमय, होवें सिद्ध समान ।।
॥ पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि ॥
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