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आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह तब श्री धरसेनाचार्य ऋषीश्वर दो मुनिवर बुलवाये थे। अरु उनकी बुद्धि परखने को दो मंत्र सिद्ध करवाये थे। मंत्रों को देख अशुद्ध सहज ही संशोधन कर लीना था। निष्कामभाव से सिद्ध किये फिर भी अभिमान न कीना था। प्रतिभा सम्पन्न विनय संयुत मुनि देख ऋषीश्वर मुदित हुए। शिक्षा देकर परिपक्व किया, आचार्य बना निश्चिंत हुए । वे तो समाधिकर स्वर्ग गये, श्री पुष्पदन्त प्रारम्भ किया। रच एक खण्ड श्री भूतबली स्वामी समीप था भेज दिया। श्री भूतबली ने शेष लिखा, यों षट्खण्डागम पूर्ण हुआ। जेठ शुक्ल पंचमी दिवस जिनश्रुत का जय जयकार हुआ। आचार्य श्री ने संघ सहित जिनश्रुत की पूजा करवाई। जिन के समान ही जिनवाणी भी पूज्य तिहूँ जग में गाई ।। धवल जयधवल महाधवल टीकाएँ फिर तो लिखी गईं। गोम्मटसार आदिक ग्रन्थों की फिर रचनाएँ सरल हुईं। यों परम्परा आगम की चलती रही आज भी हमें मिली। श्री गुणधर कुन्दकुन्द आदिक से परम्परा अध्यात्म चली। दोनों धारायें अविकारी सुखमय, शिवमारग दरशातीं। चारों अनुयोगमयी जिनवाणी, वीतरागता सिखलाती ।। है अनेकान्तमय वस्तु प्ररूपित, स्याद्वाद से सुखकारी। निर्मल दृष्टि से देखो तो अनुयोग सभी हैं हितकारी ।। आदर्श बताता है हमको, प्रथमानुयोग आनन्दकारी। उज्ज्वल आचरण सिखाता है, चरणानुयोग मंगलकारी। करणानुयोग परिणामों को, अरु लोक स्वरूप बताता है। द्रव्यानुयोग सम्यक्त्व मूल, निज पर का भेद सिखाता है।
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