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आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह औषधि अभय अहार सु जान, ज्ञानदान सब में परधान । ज्ञान बिना भ्रमता तिहुँ लोक, आत्मज्ञान से पावे मोक्ष । निज को निज पर को पर जान, ज्ञानमयी कर प्रत्याख्यान ।
सर्वदान दे हो निग्रंथ, उत्तम त्याग धरे सो सन्त ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमत्यागधर्मागाय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
हूँ मैं एक शुद्ध चिन्मात्र, अन्य न मम परमाणु मात्र। मोहादिक औपाधिक भाव, मेरे नहिं मैं ज्ञानस्वभाव ।। मैं स्वभाव से आनन्द रूप, द्विविध परिग्रह दु:ख स्वरूप। परिग्रह त्याग आकिंचन्य धर्म, धारि मुनीश्वर नाशें कर्म । श्रावक भी परिमाण कराहिं, परिग्रह में किंचित् रुचि नाहिं।
यों उत्तम आकिंचन सार, पूजो धारो भव्य संभार ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमआकिंचन्यधर्मांगाय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम ब्रह्मचर्य अविकार, पूजों धर्म शिरोमणि सार । कामभाव दुर्गति को मूल, भव-भव में उपजावे शूल। लहे न चैन करे कृत निंद्य, कामासक्त बढ़ावे बंध। तातें शील बाढ़ नौ धार, अपनो ब्रह्म स्वरूप निहार । त्यागो दुखमय इन्द्रिय भोग, पावो ज्ञानानन्द मनोग।
जयवन्तो ब्रह्मचर्य अनूप, धारे सो होवे शिवभूप।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्मागाय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
समुच्चय जयमाला मोह क्षोभ बिन परिणति, ही दशलक्षण धर्म। भेदज्ञान करि धारिये, तजि क्रोधादि अधर्म ।
(तर्ज-हे दीन बन्धु श्रीपति...) दशलाक्षणीक धर्म सहज सुःखकार है।
आनन्दमयी यह धर्म अहो मुक्तिद्वार है। दशलाक्षणीक धर्म ही नाशे विकार है।
जिनवर प्रणीत धर्म करे भव से पार है।
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