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आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह दश अंगों के अर्घ्य
(चौपाई) निज अन्तर्मुख दृष्टि होवे, परमानन्दमय वृत्ति होवे। तहँ अनिष्ट भासे नहीं कोई, क्रोध बैर उत्पन्न न होई ।। उत्तम क्षमा सहज अविकारी, वर्ते निज पर को हितकारी। तत्त्वाभ्यास करो मनमाँहीं, पर का दोष लखो कछु नाहीं॥ जैसा कर्म उदय में आवे, वैसे ही संयोग सु पावे।
तातें कर्म बंध के कारण, क्रोधादिक का करो निवारण ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमाधर्मांगाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
भेदज्ञान करि देखो भाई ! मिथ्यामान महादुखदाई। मानी के सब बैरी होवें, मानी को सब नीचा जोवें।। जल ज्यों पत्थर में न समावे, त्यों मानी निजबोध न पावे। स्वाभाविक निज प्रभुता देखो, ज्ञानी के जीवन को देखो। अध्रुव वस्तु का मान सुत्यागो, विनयवंत हो निज में पागो।
उत्तम मार्दव आनन्द दाता, पूजो धरो सहज हो ज्ञाता ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तममार्दवधर्मागाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
सहज सरल निज भाव पिछानो, गुप्त पाप को माया जानो। नहीं छिपावो ताहि मिटावो, उत्तम आर्जव चित में लावो॥ क्यों समझे ठगता औरों को, पापबंध कर ठगता निज को। उत्तम जिनशासन को भजकर, दुखमय छल-प्रपंचको तजकर ।। कोई बहाना नहीं बनाओ, रत्नत्रय पथ पर बढ़ जाओ।
सरल स्वभावी होकर भ्राता, उत्तम आर्जव पूजो ज्ञाता॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमार्जवधर्मांगाय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
लोभ लाभ का कारण नाहीं. व्यर्थ क्लेश करता मन माहीं। लोभी विषयी महामलीना, दर-दर ठोकर खावे दीना॥ ज्ञेय लुब्ध अज्ञानी प्राणी, स्वानुभूति बिन दु:खी अज्ञानी। जिन उपदेश भाग्य तें पाय, अनुभव रस में तृप्त रहाय ।।
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