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आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह हो तत्पर वैयावृत्ति माँहिं, विचरूँ मैं भी शिवमार्ग माँहिं । अरहंत भक्ति धरि विषय टार, आराधू साधू स्वपद सार । आचार्य भक्ति होवे पवित्र, धारूँ निर्मल सम्यक् चरित्र । वं, बहु श्रुतधर उपाध्याय, लहूँ ज्ञान महान सु मुक्तिदाय ।। जिनप्रवचन की भक्ति अनूप, धरि ध्याऊँ अविकल चित्स्वरूप। आवश्यक निश्चय अरु व्यवहार, हो सहजभाव से सुखकार ॥ होवे प्रभावना मंगलमय, जिनधर्म धरें सब हों निर्भय । धर्मी प्रति अति ही वात्सल्य, होवे सुखकारी अरु निःशल्य । सोलहकारण आनन्दकार, तीर्थंकर पद की देनहार। निर्वांछक हो भाऊँ सु सार, ध्रुव तीर्थरूप निजपद निहार ॥ ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडकारणेभ्यः पूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा।
(दोहा) सोलह कारण भावना, सब ही को सुखदाय। पूनँ भाऊँ भक्ति धरि, श्री जिनधर्म सहाय।।
॥ पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि ॥ श्री दशलक्षणधर्म पूजन
(हरिगीतिका) उत्तम क्षमादिक धर्म आतम का सहज निजभाव है। सुख शान्ति का है हेतु जग में, मुक्ति का सु उपाव है। है मूल सम्यग्दर्श, निज में लीनतामय ये धरम ।
पूजूं सु भाऊँ भावना हो पूर्ण दशलक्षण धरम ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
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