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आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह प्रकाशत्व शक्ति शाश्वत है, सहज प्रकाशित मम स्वभाव। सब बाह्य प्रकाश अनावश्यक, उसमें नहिं दिखता निजस्वभाव । बाहर की दृष्टि छोड़ अहो ! स्वसन्मुख चिन्मय ज्योति जगे। ये दीपक यहीं विसर्जित है, अन्तर लौ से तम-मोह भगे। अतिशय है ब्रह्म-भाव मेरा, कामादिक दुर्मति भागी है। प्रभु ब्रह्मचर्य परमानन्द पा, अतिशय प्रतीति उर जागी है।। ॐ ह्रीं श्रीपंचबालयति-तीर्थकरेभ्यो मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। दश-धर्ममयी शाश्वत सुगन्ध चेतन नन्दन में महक रही। दुर्गन्धित भाव विकारों का, किंचित्भीजहाँ अस्तित्व नहीं। यह धूप यहीं प्रभु छोड़ रहा, अब पर से दृष्टि हटाई है। स्वसन्मुख होकर अब प्रभुसम, स्वधर्म सुरभिशुभ पायी है ।।अतिशय..।। ॐ ह्रीं श्रीपंचबालयति-तीर्थंकरेभ्योऽष्टकर्म-विध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
प्रभु मुक्त स्वरूप सहज पाया, आनन्द अपूरव छाया है। शिवफल की भी वाँछा न रही, अन्तर पुरुषार्थ जगाया है।। ज्ञानी तो फल वाँछा त्यागे, पर मूढ त्याग का फल चाहे। फल चढ़ा रहा हूँहे जिनवर, बस ये विकल्प भी नहिं आये ॥अतिशय..।। ॐ ह्रीं श्रीपंचबालयति-तीर्थंकरेभ्यो मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा । प्रभु सर्वविशुद्ध स्वतत्त्व लखा, अब दृष्टिन पल भी हटती है। होता उपयोग जभी बाहर, एकाग्र भावना जगती है। एकाग्र रहे उपयोग सदा, यह ही निश्चय से अर्घ्य कहा। जिससे अविचल अनर्घ्यपदहो, प्रभुबाह्य अर्घ्य इसलिए तजा॥अतिशय.।। ॐ ह्रीं श्रीपंचबालयति-तीर्थकरेभ्योऽनर्घ्यपद-प्राप्तये अयं निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
(दोहा) वासुपूज्य श्री मल्लिजिन, नेमि पार्श्व महावीर। बाल ब्रह्मचारी सुजिन, नमत मिटै भवपीर ।।
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