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आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह निज में जुड़ती है दृष्टि जभी, समता का सहज प्रवाह बहे।
आनन्द अपूर्व प्रकट होवे, तब जन्म-जरा-मृत नहीं रहे। है जन्म-जरा-मृत रहित प्रभू ! मम आज दृष्टि में आया है। समरस से तृप्त रहूँ विभुवर, मैंने जल यहाँ चढ़ाया है। अतिशय है ब्रह्म-भाव मेरा, कामादिक दुर्मति भागी है। प्रभु ब्रह्मचर्य परमानन्द पा, अतिशय प्रतीति उर जागी है। ॐ ह्रीं श्रीपंचबालयति-तीर्थकरेभ्यो जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति। निज परमशांति शीतलता से, आपूर्ण सरोवर मम प्रभु है। भवरहित जहाँ भवताप नहीं, सर्वोत्कृष्ट सुखमय विभु है। जब ताप नहीं तब चन्दन का भी, काम नहीं कुछ शेष रहा।
चन्दन प्रभु यहीं चढ़ाया है, निष्पाप-ताप निजरूप गहा ॥अतिशय..॥ ॐ ह्रीं श्रीपंचबालयति-तीर्थंकरेभ्यो संसारताप-विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा। छिलके से ढका हुआ अक्षत, छिलका हटते ही प्रकट हुआ। पर्याय दृष्टि हटते ही त्यों, मम अक्षय प्रभु प्रत्यक्ष हुआ। निज अक्षय प्रभु के आश्रय से ही, राग-द्वेष का होवे क्षय।
ये अक्षत यहाँ चढ़ाये हैं, मैंने पाया है पद अक्षय ॥अतिशय..॥ ॐ ह्रीं श्रीपंचबालयति-तीर्थंकरेभ्योऽक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। निष्काम पूर्ण निज वैभव का, मैं तृप्त हो गया दर्शन कर। संकल्प-विकल्प प्रवेश न हों, रहते सीमा से ही बाहर॥ अद्भुत रहस्य यह पाया है, इच्छाओं की उत्पत्ति नहीं। बस निजस्वभाव में मग्न रहूँ, ये पुष्प चढ़ाता आज यहीं ।अतिशय..॥ ॐ ह्रीं श्रीपंचबालयति-तीर्थंकरेभ्यः कामबाण-विध्वंशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
समरस अमृत का सागर है, क्षुत् पीड़ा का अस्तित्व नहीं। त्यागोपादान शून्य पर से, कुछ ग्रहण-त्याग कर्तृत्व नहीं॥ प्रभु! निजस्वभाव से च्युत होकर, तन के आश्रय से भूख लगी। येनैवेद्य समर्पित यहीं प्रभो! स्वाश्रय से भव की भूख भगी॥अतिशय..॥ ॐ ह्रीं श्रीपंचबालयति-तीर्थकरेभ्यो क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।.
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