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आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह
चक्री का साम्राज्य आपने, तृणवत् क्षण में छोड़ा। हो निर्ग्रन्थ प्रभो उपयोग सु, निज ज्ञायक में जोड़ा। सकलकर्म का नाश किया प्रभु, अविचल शिवपद पाया। धन्य परम उपकारी निज सुख, निज में मुझे दिखाया। कहूँ कहाँ तक भाव बहुत हैं, अल्प शक्ति पर मेरी। तुम सम ही प्रभुतामय निस्पृह, परिणति होवे मेरी॥
चाहूँ कुछ नहिं सहजभाव से, सविनय शीश नवाया॥धन्य.॥ ॐ ह्रीं श्री शांतिनाथ-कुन्थनाथ-अरनाथ जिनेन्द्रेभ्यो जयमालाऽयं नि. स्वाहा ।
(दोहा) मंगलमय मंगलकरण, आत्मस्वरूप महान। शुद्धातम में मग्न हो, प्रगटे पद निर्वाण ॥
॥ पुष्पांजलिं क्षिपामि॥ श्री पंचबालयति जिनपूजन
(मत्त सवैया) हे ब्रह्मचर्य के धनी ब्रह्ममय, परमपूज्य त्रिभुवन स्वामी। हे पंचबालयति तीर्थंकर, तुम-सम परिणति हो जगनामी॥ आनन्दमयी निज परमब्रह्म, मैंने प्रत्यक्ष निहारा है। उल्लास हृदय में छाया प्रभु, मैंने अब तुम्हें चितारा है। ज्यों दर्पण सन्मुख हो जग में, मोही तन-रूप सजाते हैं। त्यों तुम पूजन कर हे विभुवर, हम अपना भाव बढ़ाते हैं।
(सोरठा) वासुपूज्य, मल्लि, नेमि, पार्श्व प्रभु, महावीर जिन ।
नमत होय सुख चैन, द्रव्य-दृष्टि धर पूज हूँ। ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्य-मल्लिनाथ-नेमिनाथ-पार्श्वनाथ-महावीर-पंचबालयतितीर्थंकरा: अत्र अवतरन्तु अवतरन्तु संवौषट् इत्यह्वाननम् । अत्र तिष्ठन्तु तिष्ठन्तु ठः ठः स्थापनम् । अत्र मम सन्निहिता भवन्तु भवन्तु वषट् सन्निधिकरणम्।
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