________________
19
आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह होय निर्ग्रन्थ आनन्दमय, आपसा मुक्तिमय जीवन ॥ धन्य... ॥४॥ भावना सहज ही होवे, दर्श प्रत्यक्ष कब पाऊँ। नशे रागादि की वृत्ति, अहो निज में ही रम जाऊँ। मिटे आवागमन होवे, अचल ध्रुव सिद्धगति पावन ॥धन्य...॥५॥
जंगल में मुनिराज अहो... जंगल में मुनिराज अहो मंगल स्वरूप निज ध्यावें। बैठ समीप संत चरणों में, पशु भी बैर भुलावें॥टेक।। अरे सिंहनी गौ-वत्सों को, स्तनपान कराती।
हो निशंक गौ सिंह-सुतों पर, अपनी प्रीति दिखाती॥ न्योला अहि मयूर सब ही मिल, तहाँ आनन्द मनावें ।।बैठसमीप संत. ॥१॥
नहीं किसी से भय जिनको, जिनसे भी भय न किसी को।
निर्भय ज्ञान गुफा में रह, शिव-पथ दर्शाय सभी को। जो विभाव के फल में भी, ज्ञायकस्वभाव निजध्यावें।।बैठसमीप संत. ॥२॥
वेदन जिन्हें असंग ज्ञान का, नहीं संग में अटकें।
कोलाहल से दूर स्वानुभव, परम सुधारस गटकें॥ भवि दर्शन उपदेश श्रवण कर, जिनसे शिवपद पावें॥बैठसमीप संत. ॥३॥
ज्ञेयों से निरपेक्ष ज्ञानमय, अनुभव जिनका पावन ।
शुद्धातम दर्शाती वाणी, प्रशम मूर्ति मन भावन ।। अहो जितेन्द्रिय गुरू अतीन्द्रिय, ज्ञायक गुरु दरशावें॥बैठसमीप संत.॥४॥
निज ज्ञायक ही निश्चय गुरुवर, अहो दृष्टि में आया।
स्वयं सिद्ध ज्ञानानन्द सागर, अन्तर में लहराया। नित्य निरंजन रूप सुहाया, जाननहार जनावें। बैठ समीप संत. ॥५॥
पर-पदार्थों की चाह होना, पर की प्रतिष्ठा देखकर उससे उसे महान मानना - इसप्रकार की सोच इत्यादि यह मोह को चाहना है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org